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________________ वराङ्ग चरितम् किमास्महे स्वामिनि संप्रयाते वयं हि तेनैव सहाभियामः । इति प्रतिज्ञामभिगा केचित्तारेभिरे गन्तुमदीनसत्त्वाः ॥ ७२॥ एवं हि पौरेरपरीक्षिताथैः स्वचित्तसंकल्पितवाक्प्रलापैः। निगद्यमानो नृपतिर्जगाम पुरादबहिनिर्गतरागबन्धः ॥ ७३ ॥ पुरं क्रमेणाप्रतिधीर्व्यतीत्य वनं च नानाद्रुमपुष्पकीर्णम् । रक्तोत्पलैर्वाकुलिताभ्रवृन्दैर्नपः प्रपेदे मणि'मन्त्रसिद्धम् ॥ ७४ ।। तं पर्वतं ज्ञानतपश्चरित्रैविस्तीर्णकीति, निरध्युवास । गणाग्रकेतुर्वरदत्तनामा सविग्रहो धर्म इव द्वितीया ॥ ७५ ।। एकोनत्रिंशः सर्गः बिना हिचकिचाहटके छोड़ देते हैं। हम लोगोंके आन्तरिक पतनकी भी कोई सीमा है ? जो हम लोग कुछ भी पास न होनेपर भी भोगविषयोंके संकल्प तथा आशाको भो नहीं छोड़ सकते हैं ।। ७१ ।। जब कि कितने ही लोग इन ज्ञानमय उद्गारोंको कहकर हो तुष्ट हो गये थे तब ही कितने ही पुरुष जिनका आत्मा मरा न था तथा जिनका आत्मबल दीन न हुआ था वे कह उठे थे-अरे! सम्राट जा रहे हैं और हम हाथपर-हाथ धरे बैठे हैं ? हम भी उन्हींके साथ जायेंगे और दीक्षा ग्रहण करेंगे। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करके वे भी सम्राटके साथ चल दिये थे॥७२॥ समर्थ ज्ञानी उस समय नागरिकोंके मनमें जो-जो भाव आते थे उन सबको वे अपने वचनों तथा कल्पनाओंसे व्यक्त करते थे। यही कारण था कि उनके पूर्वोक्त उद्गारोंमें किसी भी विषयके विवेचनकी छायातक न थो । पौर-जन अपने मनोभावोंको व्यक्त करने में लीन थे और वरांगराज धीरे-धीरे चलते हुए नगरके बाहर जा पहुंचे थे, क्योंकि उनके राग तथा द्वेषके बन्धन टूट चुके थे ।। ७३ ।। सो सब नोरस लागे वरांगराज धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाते थे, आनर्तपुर उनके पोछे रह गया था, इसी क्रमसे वे नाना जातिके वृक्षों तथा पुष्पोंसे व्याप्त वनोंको भी पार करते जा रहे थे । इन बनोंमें विशाल निर्मल तालाब थे जो कि लाल कमलोंसे पटे हुए थे। पर सम्राटको इन सबका ध्यान नहीं था क्योंकि उनकी बुद्धि तपमय ही हो रही थी। इस गतिसे चलते-चलते वे मणिमन्त ( पर्वतका नाम ) सिद्धाचलपर जा पहुंचे थे ।। ७४ ।। [६००] गुरुदर्शन यह वही पर्वत था जिसके ऊपर श्री वरदत्त केवली महाराज विराजमान थे । वरदत्त केवली भगवान अरिष्टनेमिके। १. क मणिमत्व। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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