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________________ वराज चरितम् केवलज्ञानविशुद्धचक्षुर्महर्षिविद्याधरदेवतार्यः । धर्मामृतं भव्यजनाय यच्छन्लभौ मुनिर्भरुरिवातितुङ्गः॥ ७६॥ अदूरतस्तं समवेक्ष्य भूपाः स्ववाहनेभ्यस्त्ववतीर्य तुर्णम् । प्रदक्षिणीकृत्य विशद्ध भावा नेमः शिरोभिम निसत्तमं तम् ॥ ७७ ॥ वराङ्गराजः शमितात्मरागः प्रणम्य पादौ वरदत्तनाभ्रः। स्थित्वा पुरस्तादभिजातहर्षः कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं जगाद ॥ ७८ ॥ सर्वज्ञ सर्वाचित सर्ववन्द्य सर्वाश्रमाणां परामाश्रमस्थ । शरण्यभूत त्रिजगत्प्रजानां संसारभीतः शरणागतोऽहम् ॥ ७९ ॥ एकोनत्रिंशः सर्गः SAIRSUTARISHAIRATRAILERatna गणधरोंके प्रधान थे, उनके परिपूर्ण ( केवल ) ज्ञान, तप तथा चारित्रकी विमल कीर्ति देश-देशान्तरोंमें छायी हुई थी ।। ७५ ॥ उनके दर्शन करते ही ऐसा लगता था कि वे शरीरधारी धर्म हो थे। उनको शुद्ध तथा सर्वदर्शी आँख 'केवलज्ञान' ही था, वे इतने बड़े महर्षि थे कि विद्याधर और देव भी सतत उनकी पूजा करते थे। वे भव्यजीवोंके कल्याणके लिए सदा ही धर्मोपदेश रूपी अमृतकी वृष्टि करते रहते थे। उनका ज्ञान तथा चारित्र इतना विशुद्ध था कि वे मनुष्योंमें सुमेरुके समान उन्नत प्रतीत होते थे ।। ७६ ॥ ज्यों ही राजा लोग पर्वतके निकट पहुँचे और उनकी दृष्टि महाराजके श्रीचरणोंपर पड़ी त्यों ही वे सबके सब एक क्षणमें ही अपने वाहनोंपर से उतरकर भूमिपर आ गये थे। तुरन्त ही उन सबने मुनिराजको तीन प्रदक्षिणाएं की थी और मुनिराजके चरणोंमें अपने मस्तकोंको झुक कर प्रणाम किया था ।। ७७ ।। वरांगराज भी बड़े भक्तिभावसे श्री केवलीमहाराजके चरणोंमें प्रणाम करके उनके सामने विनम्रता पूर्वक जा बैठे थे। उस समय उनके हर्षका पार न था, मुनिराजके शान्त प्रभावसे उनका मोह और भी शान्त हो गया था । यही कारण था कि वे हाथ जोड़ कर बैठे थे और अवसर मिलते ही उन्होंने अपने मनोभावोंको महाराजपर प्रकट कर दिया था ।। ७८ ।। गुरु प्रार्थना हे सर्वज्ञदेव ? आप मनुष्य, विद्याधर, देव सब हीके पूज्य हैं। संसारके प्राणी आपकी वन्दनाके लिए तरसते हैं। आप म स्वयं सर्वोत्तम आश्रम ( सयोगकेवली अवस्था ) को प्राप्त कर चुके हैं यही कारण है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चारों आश्रमोंके मनुष्य आपकी पूजा करते हैं। तीनों लोकोंके जीवोंके लिए आप ही एकमात्र आधार हैं। मैं स्वयं संसारसे डरा हुआ हूँ इसीलिए त्राण पानेके लिए आपकी शरणमें आया हूँ॥ ७९ ॥ S Jain Education Interational www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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