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वराङ्ग
चरितम्
कान्तिद्युतिज्ञानविभूतियुक्तं सुखान्वितं धान्यधनान्वितं च । समीक्ष्यमाणोऽपि नरो नरं तं सुपुण्यवानेष इति ब्रवीति ॥ ६८॥ पुराजितश्रीस्तपसां फलेन इहोपभुङ्क्ते मनुजः सुखानि । कृत्वेह पुण्यानि महाफलानि सुरासुराणां कुरुते तदैश्यम् ॥ ६९ ॥ एवं च पूर्वाजितपुण्यपाकादिमां विदित्वा नृपतां नरेन्द्रः। विहाय तां देवपतित्वमीप्सुर्वनं प्रयातीति च केचिद्रचः ॥ ७० ॥ त्यजन्ति येऽर्थान्महतश्च भोगांस्त एव धन्याः पुरुषाश्च लोके । वयं पुनस्तानसतोऽप्यपुण्यास्त्यक्तु न शक्ता इति केचिदूचुः ॥७१॥
एकोनবি: सर्गः
पूर्वक दान ये चारों हो सुखरूपी वृक्षके बीज हैं । जो पुरुषार्थी पुरुष इन बोजोंको अपने वर्तमान जीवनरूपी भूमिपर बो देंगे, वे धीर वीर पुरुष ही इस जन्म तथा अगले जन्मोंमें यथेच्छ सुखोंका निरन्तराय भोग कर सकेंगे ।। ६७ ।।
पुण्यात्मा पुरुषको देखकर ही गुणी पुरुष कह उठते हैं कि यह मनुष्य शुभकर्मोंका कर्ता है। क्योंकि उसके शरीरकी कान्ति, मुख मण्डलकी द्युति, प्रत्येक विषयका प्रामाणिक ज्ञान, साथ-साथ चलता हुआ वैभव, उसके आसपासका सुखमय वातावरण, धन तथा अतुल धान्य, आदि ही उसके पूर्व जन्मके शुभकर्मोंका पूर्ण परिचय देते हैं ।। ६८ ॥
पूर्व भवमें जो आन्तरिक श्री ( शान्ति, दया आदि ) तथा तपस्या संचित की जाती है, उसीका यह फल है कि मनुष्य अपने वर्तमान भवमें सब प्रकारके सुखों तथा भोगों का आनन्द लेता है । तथा जो व्यक्ति अपने वर्तमान जीवनमें ऐसे-ऐसे विशाल पुण्यकार्य करता है जिनका परिपाक होनेपर महा फल प्राप्त हो सकते हैं। वही मनुष्य अपने भावी जीवनमें देवों तथा असुरोंकी प्रभुताको प्राप्त करता है ॥ ६९ ।।
सम्राट ज्ञानी हैं इसी क्रमको समझ सकनेके कारण सम्राट वरांग जानते हैं कि उनके समस्त वैभव पूर्वभवमें आचरित शुभकर्मों के परिपाक होनेके कारण ही उन्हें प्राप्त हुए हैं। किन्तु वे अगले जन्ममें देवोंके राजा इन्द्र होना चाहते हैं इसीलिए इस विशाल सम्राजP की लक्ष्मीको छोड़कर तपस्या करनेके लिए वनको प्रयाण कर रहे हैं ।। ७० ॥
धन्य यह सुबुद्धि इस लोकमें वे पुरुषसिंह ही धन्य हैं जा कुवेर सदृश विशाल सम्पत्ति तथा इन्द्रतुल्य प्रचुर भोगविषयोंकी सामग्रीको भी १. म तबैश्चम् ।
CRETARIETARIALLETTERPRIL
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