________________
S
एकोन
बराज चरितम्
इत्यवमादीनि वचास्यथोच्चैः प्रभाषमाणानफलानभार्यान्।। भद्राः प्रकृत्या श्रुतधर्मतरवा विलोक्य तेभ्यः पुनरिथमचुः ॥ ६४ ॥ धर्मात्सुखैश्वर्यधनानि लोके लभन्त इत्येव कथा ततान। कुतो भवन्तः समुपागता वा जडा वकज्ञा श्रुतिबाह्यभूताः ॥६५॥ शालोक्षुगोधूमयवादिधान्यं बोजाद्विना नाङ्करतामुपैति । तपोमयं बीजमथायनीय: स्वर्मोक्षसौख्यं लभते न कश्चित् ॥६६॥ पूजा तपः शीलमपि प्रदानं चत्वारि बीजानि सुखस्य लोके । उप्त्वा नरास्तानि महीतलेऽस्मिन् कमेण धीराः सुखभागिनः स्युः ॥६७॥
त्रिंशः सर्गः
विषयोंको छोड़ रहा है, समझमें नहीं आता यह सब क्या कर रहा है? ज्ञात होता है कि इसका कोई भी सगा सम्बन्धी अथवा मित्र ऐसा नहीं है, जो साहस करके इसे समझाये कि वास्तवमें हित क्या है ।। ६३ ।।
अज्ञानी ऐसे अनेक वचनोंको सम्राटकी समालोचनामें जोर-जोरसे कह रहे थे। उनके ये सब उद्गार निरर्थक ही थे, पर अनार्योंसे और आशा ही क्या की जा सकती थी ? किन्तु ऐसे भी साधु पुरुष थे जो स्वभावसे ही सज्जन थे, जिन्होंने धर्मशास्त्रके तत्त्वोंका गम्भीर मनन किया था। राजपाट छोड़कर दीक्षा लेनेके लिए जाते हुए सम्राट वरांगपर जब उन लोगोंकी दृष्टि पड़ी तो उन्होंने उन मूढ़ प्राणियोंको उद्देश्य करके कुछ वचन कहे थे ।। ६४ ॥
नीतिनिपणाः स्तुवन्तु _ 'जगतके जन्ममरण चक्रमें पड़े जीव धर्ममय आचरण करके ही स्वास्थ्य, यश, स्नेही कुटुम्ब आदि सुखों, प्रभुता तथा विविध सम्पत्तियोंको प्राप्त करते हैं, इस विश्व विख्यात सिद्धान्तको कौन नहीं जानता है ? पूर्व कर्मोंके बिना अपने आप ही लोग किस कारणसे अपनो वर्तमान पर्यायको पा सके हैं ? आप लोगोंकी मूर्खता वास्तवमें दयनीय है जो आप लोग ऐसी बातें कर रहे। हैं, जिनका आगमसे समर्थन नहीं होता है ।। ६५ ।।।
बड़ी साधारण-सी बात है कि धान, ईख, गेहूँ, जौ, आदि जितने भी अनाज हैं, यदि इनके बीज न हों तो किसीकी क्या सामर्थ्य है कि अंकुर उगा दे। इसी प्रकार तपस्या रूपी बीजको त्याग कर यह कभी भी संभव नहीं है कि जीव स्वर्ग और मोक्षरूपी फलोंका स्वाद पा सके ।। ६६ ।।
[५९८ जो सुखरूपी फलोंको खानेके लिए उत्सुक हैं उन्हें जानना चाहिये कि जिनपूजा, शुद्ध तप, आदर्श शील तथा विधि१. [ °फलानभद्रान् ] ! २. [ बीजमथापनीय ] । For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
EARSHURARIHIRDERERatnaSERIES
Jain Education International