________________
वराङ्ग चरितम्
एकोनत्रिंशः
विमुच्य हस्तागत'मर्थकज्ञो वनेऽन्यमथं मगयेति कश्चित । इदं हि राज्यं प्रविसृज्य वाञ्छेददृश्यमिन्द्र त्वमवाप्तुमज्ञः ॥ ६॥ सुसिद्धमन्नं प्रविहाय कश्चित्पुनः प्रपक्तुं घटते विचेताः । सयादा न वा संशयित तदन्नं राज्यं तथा सिद्धमसिद्धमैन्द्रम् ॥ ६१ ॥ पञ्चेन्द्रियाणां विषयाश्च पञ्च ते सेवितव्या इति सत्प्रवादः । सत्स्विन्द्रियेष्वर्थतमेषु सत्सु किमन्यमर्थान्तरमार्गयेद्वा५ ॥ ६२॥ अहो नपोऽयं निरपेक्षितार्थो व्यामोहितात्मा बत किं करोति । न कञ्चिदस्यात्महितस्य वक्ता बन्धः सखा वा खलु विद्यतेऽत्र ।। ६३ ।।
यह है कि यदि यहाँसे गया कोई व्यक्ति अथवा स्वर्गसे आया कोई प्रत्यक्ष दृष्टा इसका समर्थन करता तब तो इसे प्रमाण मान सकते है ।। ५९॥
__ जो मूढ है वही हाथमें आयी वस्तुको छोड़कर वनको दौड़ता है और वहाँपर किसी व्यर्थ पदार्थके पीछे टक्कर मारता फिरता है जो व्यक्ति इतने विशाल सम्राजको छोड़कर उस इन्द्रपदकी कामना करता है जिसे किसीने देखा भी नहीं है उसे मूर्ख न कहें तो और क्या कहें ॥ ६ ॥
उत्तम विधि पूर्वक रांधे गये सुस्वाद तथा पवित्र प्रस्तुत भोजनको थालीको पैरसे ठुकराकर जो अज्ञ व्यक्ति भोजनको फिर किसी प्रकारसे पकाना प्रारम्भ कर नीरस करता है जिसमें यह भी संभव है कि उससे पकाया गया भोजन पहिले पकेगा भी या नहीं तथा पक कर भी खाने योग्य होगा या नहीं ? यही परिस्थिति हमारे राजाकी है, आनतपुरका विशाल राज्य सामने हैं इन्द्र पदको कौन जानता है, और जाननेसे भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि इन्हें वह प्राप्त हो ही जायगा ऐसा विश्वास कौन दिला सकता है ? ।। ६१ ॥
यावज्जीवं सुखं जीवेत् पाँचों इन्द्रियोंके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये पाँच विषय हैं । संसारमें यह सल्य मानता भी चली आ रही है कि इन विषयोंका यथेच्छ सेवन करना चाहिये । इन्द्रियोंको परम प्रिय पदार्थ अधिक मात्रामें उपलब्ध हों, तो फिर क्या आवश्यकता है कि कोई भी समझदार व्यक्ति दूसरे पदार्थोंको खोजता फिरे ।। ६२ ॥
हमें तो इस राजाको देखकर आश्चर्य होता है, प्रतीत होता है कि इसकी बुद्धि बिगड़ गयी है, इसीलिए उपादेय भोग १. [°गतमर्थमज्ञो, 'गतमर्थक यो]। २. [ मृगयेत ] । ३. म स्याद्वादवासंशयितुं । ४. [ संशयितं ]। ५.[°मापयेद्वा]
For Private & Personal Use Only
ame-THE-HAAREETTEAHEATRESEARLITERATURE-STREAMERI
[५९७1
Jain Education interational
www.jainelibrary.org