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________________ बराङ्ग चरितम् एकोनপি: नपं प्रयातं प्रसमीक्ष्य केचिद्धर्मप्रियाः पौरजनाः प्रहृष्टाः । केचित्पुनर्मोहमहातमोऽन्धा दुर्बुद्धयोऽत्यल्पतमा निनिन्दुः ॥ ५६ ।। मत्स्यामिषाभ्यां च यथा शृगालः प्रवञ्चितो लोभतया विमूढः । यथा च नारी युवरूपलब्धा' भ्रष्टोभयाभ्यां पतितस्कराभ्याम् ।। ५७ ॥ तथा नरेन्द्रो विपुलांश्व भोगान्प्रत्यक्षभूतं प्रविहाय बालः । परोक्षमिच्छन्सुरसौख्यमोक्षं प्रवच्यते जम्वुकपुश्चलीवत् ॥ ५८ ॥ स्वर्गोऽस्ति नास्तीति कथं हि शक्यं श्रद्धानुसज्ज्ञानवचां वयो यत् । इतो गतो वा तत आगतो वा पुमान्यदि स्यात्तदिह प्रमाणम् ॥ ५९॥ साथ गृह छोड़कर चल दी थीं । कोई-कोई रानियाँ उत्तम रथोंपर आरूढ़ थी। उन रथोंमें सुन्दर तथा सुलक्षण घोड़े जुते हुए थे। शेष रानियोंने पालकियोंपर बैठना ही पसन्द किया था। ये पालकियाँ बड़ी ही मनोहर थीं ॥ ५५ ॥ भोग विलासको ठुकराकर वनको प्रयाण करते हए वरांगराजको देखकर, सदाशय पुरुष जिन्हें धर्ममें श्रद्धा थी वे बड़े प्रसन्न हुए थे। कुछ ऐसे भी दुर्बुद्धि थे जो उनकी निन्दा करते थे क्योंकि मोहरूपी महा अन्धकारने उनका ज्ञाननेत्र ही फोड़ दिया था, इसो कारण उनके हृदय इतने पतित हो गये थे ।। ५६ ।। खलजन वे कहते थे कि 'राजा उस मूर्ख शृगालके समान है जिसने लोभमें आकर जलमें मछली पकड़नेके लिए मुख खोलकर दोनों ( मुखकी वस्तु तथा मछलो )से हाथ धोये थे। अथवा उस कामिनीके समान है जो एक युवकके रूपपर मोहित हो गयी थी किन्तु थोड़ी-सी असावधानीके कारण पति तथा चोर (प्रेमी ) दोनोंके द्वारा छोड़ दो गयी थी। ५७।। यही गतिविधि वरांगराजकी दिखती है-ये सामने पड़े हुए विपुल वैभव तथा असीम भोग सामग्रीको इसलिए छोड़ रहे हैं कि इन्हें देवगतिके शुद्ध सुख तथा अतीन्द्रिय मोक्षसुख प्राप्त हो। इनसे बड़ा मूर्ख कौन होगा ? इन सुखोंको किसीने देखा। भी है । ये भी शृगाल और पुश्चलीके समान उभयतः भ्रष्ट होंगे ।। ५८ ।। नास्तिकमत स्वर्ग है अथवा नहीं है इस सिद्धान्तपर कैसे आस्थाको जा सकती है ? क्योंकि यह सब कल्पनाएँ उन लोगोंकी हैं जिन्हें । पहिले किसी बातपर श्रद्धा हो गयो थी तथा बादमें उसीकी पुष्टिमें उन्होंने अपने ज्ञानका उपयोग किया था। सत्य तो १. म लब्धा। २. [ ° भतान्प्रविहाय ]। ३. क °वचा चचो, [ वतां वचो ] । [५९६) Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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