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________________ अष्टविधाः बराङ्ग चरितम् सर्गः निःश्वस्य दीर्घ स्वशिरः प्रकम्प्य निभिद्य संसारमपारदुःखम् । उत्थाय तस्यां नृपतिः सभायां स्ववासगेहं प्रविवेश धीमान् ॥ २९ ॥ प्रविश्य तं भोगविरक्तचित्तस्तत्त्वार्थमार्गाभिनिविष्टबुद्धिः। नैरसंग्यमास्थातुमना नरेन्द्रो लोकस्थिति चिन्तयितुं प्रवृत्तः ॥३०॥ अनित्यभावं दशरण्यतां च संसारमेकत्वमथान्यतां च। अशौचमप्यानवसंवरौ च सनिर्जरं बोषिसुदुर्लभत्वम्॥३१॥ इमं च लोकं परलोकभावं शुभाशुभं कृत्यमकृत्यतां च ।। गत्यागति बन्धविमुक्तिमार्ग विचिन्तयामास यथास्वभावम् ॥ ३२॥ उनके चित्तने ही उत्तर दिया था कि वास्तवमें सब बातें वैसी ही थीं। दुःख और पश्चातापके कारण उनके मुखसे अनायास ही लम्बी श्वास निकल पड़ी थी, भूल स्वीकारका द्योतन करनेके लिए उन्होंने शिर हिलाया था, संसारके अपार तथा भीषण दु:खोंका स्मरण करके वे कांप उठे थे। इन्हीं विचारों में लीन होकर वे उस विलास सभासे उठ गये थे । और अपने एकान्त गृहमें चले गये थे।। २९ ।। संसारके विषय भोगसे उन्हें स्थायी विरक्ति हो चुको थो। आत्माके पूर्ण विकास के साधक तत्त्व मार्गपर उन्हें पूर्ण आस्था हो चुकी थी। वे परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनि होनेका निर्णय कर चुके थे। फलतः ज्यों हो वे एकान्तमें पहुंचे त्यों ही उन्होंने जगतके स्वभाव तथा अन्य बातोंका गम्भीर विचार प्रारम्भ कर दिया था ।। ३० ॥ बारह भावना संसारके स्वरूपकी भावना करते ही उनके सामने उसको अनित्यता नग्न रूपमें खड़ी हो गयी थीं। आत्माकी अशरणता । के ध्यान से ही वे काँप उठे थे । संसारको निस्सारता, सुखदुःखमें जोवका अकेलापन, बन्धु-बान्धवोंसे सर्वथा पृथक्ता, जगत तथा कायाकी अपवित्रता, कर्मोंका आस्रव तगा संवर, कर्मोका समूल नाश (निर्जरा), तत्त्वज्ञानकी दुर्लभता, इस लोकका आकार तथा अधो, मध्य तथा ऊर्ध्वलोक आदि विशेष विभाग ।। ३१ ॥ लोक भावना शुभ कर्मोकी उपादेयता तथा अशुभ कर्मोंका त्याग मय धर्म तथा क्या कर्तव्य या आत्माका स्वभाव है तथा कौनसे अकर्तव्य पर-स्वभाव हैं, इत्यादि रूपसे आत्मतत्त्व आदि भावनाएं उनके हृदयमें जाग्रत हुई थीं। जीवकी क्या गति हो सकती है, किन कारणोंसे दुर्गति होती है, बन्ध तथा मोक्षके प्रयोजक कौनसे कार्य हैं इन सब विचारणीय विषयोंकी सम्राटने निश्चयदृष्टिसे चिन्ता की थी ।। ३२ ।। । १.क °सुदुर्लभं च । For Private & Personal Use Only [५६२ । www.jainelibrary.org Jain Education Interational
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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