________________
अमेयवीर्यद्युतिसत्त्वशौर्या दिवौकसस्त्वष्टगुणद्धियुक्ताः । दिवस्पति वज्रधरं महेन्द्रं दिवः पतन्तं न हि वारयन्ति ॥ ३३ ॥ दिवसप्तरत्नाधिपति निधीशं महौजसं मन्दरसारवीर्यम् । सुरक्षमाणं गणबद्धदेवै वान्तको मुञ्चति चक्रपाणिम् ॥ ३४ ॥ जगत्प्रधानाः पुरुषाः पुराणा ब्रह्मा हरो विष्णुरिति त्रयोऽपि । तानप्युदारान्विवशीचकार न मृत्युतो वोर्यतमोऽस्ति कश्चित् ॥ ३५॥ हलीशवागीशगणेश्वराश्च विद्येश्वराः सर्वभुवामधीशाः । योगीश्वरा ये च महर्षयश्च पतन्ति कालेन निपात्यमानाः ।। ३६ ॥
अष्टाविंशः सग:
चरितम्
इसी प्रसंगमें उन्हें स्मरण आया था कि स्वर्गके सम्राट इन्द्रके अनुयायी सब देव स्वयं ही अपरिमित शारीरिक बल, तेज, साहस तथा पराक्रमके स्वामी होते हैं, उनकी निवासभूमि मरणशील मनुष्यके वासस्थलसे सर्वथा विलक्षण है। इन सब म योग्यताओं के अतिरिक्त वे अणिमा, लघिमा, आदि आठ ऋद्धियोंके स्वाभी भी हैं। इनके स्वामी इन्द्रका तो कहना ही क्या है,
उनके पास इन सब योग्यताओंके साथ-साथ वन ऐसा महान आयुध भी रहता है, किन्तु आयु समाप्त होने पर जब महेन्द्रका पतन होता है तो उन्हें कोई भी नहीं बचा पाता है ॥ ३३ ॥
मरते न बचावे कोई द्विगुणित सात अर्थात् चौदह रत्नोंके स्वामी नव-निधियोंके एकमात्र भण्डार, महान तेजस्वी, सुमेरु पर्वतके समान अडिग तथा शक्तिशाली, पूर्व पुण्यसे प्रेरित देवताओं और गणोंके द्वारा सुरक्षित तथा स्वयं भी चक्र ऐसे अमोघ शस्त्रके कुशल परिचालक चक्रवर्ती सम्राटको भी अन्तक ( मृत्यु ) नहीं ही छोड़ता है ॥ ३४ ।।
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ये तीनों महात्मा वैदिक-जगतमें सबसे प्राचीन पुरुष थे, जन साधारणसे सर्वथा विलक्षण होनेके यह कारण ही उनके प्रधान थे। तथा इनके विचार व्यवहार अत्यन्त उदार थे, किन्तु अन्तकने इन्हें भी इहलीला समाप्त करनेके लिए सर्वथा विवश कर दिया था। भला कोई भी प्राणी; क्या मृत्युसे भी अधिक शक्तिशाली है ॥ ३५ ॥
हलधर, विद्याधर, गणधर, व्याख्यान कलाके अवतार तथा समस्त संसारके एकक्षत्र राजा लोग अपने-अपने क्षेत्रमें अजेय थे । संसार छोड़कर उग्र तपस्या करनेवाले योगीश्वर, तथा लोकोत्तर ऋद्धियोंको अलौकिक सिद्धियोंको कौन नहीं जानता है। किन्तु जब कालने इनपर ठोकर मारी थी तब ये सब भी पके पत्तेके सदृश चू गये थे ॥ ३६ ।।
For Private & Personal Use Only
नानाभाचELES
SHRATHI
५६३]
Jain Education international
www.jainelibrary.org