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________________ बराङ्ग परितम् सप्तविंशः सर्गः ततः शिरीषं त्वतिसंयुतं च प्रहेलिका चापि च चचिका च । संख्याव्यतीतं च ततः प्रमाणमौपम्यगम्यं मुनयो वदन्ति ॥ १३॥ संख्ययमादौ प्रवदन्ति तज्ज्ञास्ततस्त्वसंख्येयमनन्ततां च । एकैकमेषां त्रिविधप्रकारं नवप्रकारं द्वयमामनन्ति ॥ १४ ॥ व्यवहारपल्यं प्रथमं वदन्ति न तेन किचिद्व्यवहार्यमस्ति। उद्धारपल्यं च नतो द्वितीयमद्धारपल्यं ज पुनस्तृतीयम् ॥ १५॥ विष्कंभमानं खलु योजनं स्यात्परिक्षिपन्तं त्रिगणाधिकं च । उत्सेधतो योजनमेव यस्य तत्पल्यमाहर्गणितप्रधानाः ॥१६॥ एकाहिक सप्तदिनानि यावज्जातस्य रोम्णां खल बर्करश्च । अनेककल्पप्रतिखण्डितानां निरन्तरं तिन्दूसमं प्रपूर्णम् ॥ १७॥ २ग । AHESHISAMAJHAHIDARSujearPAPHimes इसके बाद शिरोष, अतिसंयुत, (अथवा अतिशिरोष ) प्रहेलिक तथा चचिक संख्याएँ निकलती हैं। चचिका अन्तिम संख्या-प्रमाण है । इसके आगे जो प्रमाण हैं उन्हें अंकों द्वारा नहीं कहा जा सकता है। ( असंख्य ) ज्ञानी मुनियोंका कथन है कि उन सबका प्रमाण सादृश्य (उपमा) देकर ही समझाया जा सकता है वे उपमा-प्रमाण हैं ।। १३ ।। संख्याशास्त्रके पंडितोंका मत है कि संख्यात (जिनके अन्तिम प्रमाणको बता चुके हैं ) उपमा-प्रमाणका मूल है। उससे आगे बढ़ते हो असंख्यात हो जाता है और बढ़ते-बढ़ते अनन्त तक जाता है। इन संख्यात, असंख्यात तथा अनन्तमें प्रत्येकके तीनतीन भेद हैं । इस प्रकार सब मिलकर नौ ( सात ) होते हैं। ये भी दो, दो प्रकारके हैं अतएव समूहित संख्या अठारह चौदह हो । जाती है ॥ १४ ॥ उपमा प्रमाण उपमा-प्रमाणके प्रथम भेदके सर्वप्रथम प्रभेदका नाम व्यवहार-पल्य है। यद्यपि इसका नाम व्यवहार-पल्य है तो भी इससे कोई व्यवहार नहीं मिलता है क्योंकि इसमें किसी काल या वस्तुका प्रसाण नहीं दिया है । व्यवहार पल्यके आगे उद्धार-पल्य गिनाया है तथा इस शृंखलामें अद्धापल्य तीसरा अथवा अन्तिम है ।। १५ ।। गणित शास्त्रके आचार्योंने पल्यके प्रमाणको इस क्रमसे बताया है-एक गोल गर्त खोदिये जिसके विष्कम्भ (व्यास) का प्रमाण एक योजन हो, आपाततः उसकी परिधि व्यासके तिगुनेसे भी अधिक होगी। इस गर्तकी गहराई भी पूरी एक योजन होती है। इस गर्तको ही पल्य कहते हैं ।। १६ ।। जिन बकरोंको जन्म के एक दिनसे लेकर अधिकसे अधिक सात दिन हुये हैं उनके कोमल रोमोंको लेकर अत्यन्त सूक्ष्म १. [बर्करस्य ] । २. संख्यात के सिवाय असंख्यात-अनन्त ही परीत, युक्त तथा द्वित है। For Privale & Personal use only ARTHAARAARRIERELIGHLIGITAURANAGPUR Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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