________________
बराङ्ग चरितम्
निवर्तमानान्स्वपुरात्कुमारः
प्रीत्या महेन्द्रप्रतिमान्विधिज्ञः । प्रयाप्य' दूरं विदितत्रिवर्गः स्वच्छन्ददृत्यानुबभूव भोगान् ॥ ८९ ॥ प्रियाङ्गनाभिर्वरवर्णिनीभिः
प्रफुल्लनीलोत्पललोचनाभिः ।
चन्द्राननाभिः सह राजपुत्रो रेमे चिरं पीनपयोधराभिः ॥ ९० ॥ तासां वधूनां रमणप्रियाणां क्रोडानुषङ्ग क्रमकोविदानाम् । आलापसल्लापविलास भावैः कालो व्यतीतो धरणीन्द्रसूनोः ।। ९१ ॥ ताश्चापि भास्वद्रमणीयवेषाः स्वाम्येकभावप्रतिवद्धरागाः ।
सर्वास्तु सर्वेन्द्रियरत्यधिष्ठाः ॥ ९२ ॥
मनोज्ञरुपद्युतिकान्तिमत्यः
धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोंके सम्बन्ध और अनुपातके विशेषज्ञ तथा लोकाचारके पंडित युवराज वराङ्गको जब यह समाचार मिला कि महेन्द्रके समान विभव और प्रतापके स्वामी उसके ससुर लोग अपने देशोंको लौट रहे हैं तो वह उन्हें बहुत दूरतक भेजने गया । उन्हें भेजकर लौटनेके बाद ही उसने समस्त गार्हस्थिक भोग, उपभोगोंका यथेच्छ सेवन किया
था ।। ८९ ।।
पति-पत्नी अनुराग
राजकुमारकी नवोढ़ा राबही पत्नियाँ परम प्यारी थीं, सबही लोकोत्तर सुन्दरियाँ थीं, उन सबके नेत्र पूर्ण विकसित नीले कमलोंके समान सुन्दर और मदपूर्ण थे, मुख पूर्ण चन्द्रके समान मोहक और उत्तेजक था और स्तनादि भोग्य अंग पूर्ण विकसित थे । फलतः वह उनके साथ चिरकाल तक रतिकेलिमें लीन रहा था ॥ ९० ॥
धरणा इन्द्र महाराज धर्मसेनके पुत्र वराङ्गका सारा समय अपनी प्रेयसियों के साथ प्रेमालाप, हास्य प्रहसन, हाव भाव, आदि प्रेम लीलाएं करते करते ही बोत जाता था, क्योंकि वे सव हो पतिको प्यारी थीं और पतिपर प्रगाढ़ प्रेम करती थीं, और प्रेम लीलाओं की शृंखलाको चालू रखनेमें बड़ी कुशल थीं ॥ ९१ ॥
उन सबही बहुओं की वेशभूषा उज्ज्वल और उद्दोपक थी, वे दिन रात पति और उसके साथ हुई प्रेमलीलाके विचारोंमें ही मस्त रहती थीं, उनका रूप, ओज और कान्ति हृदयमें स्थायी स्थान कर लेते थे सबकी सब समस्त इन्द्रियोसे रति करनेमें दक्ष थीं ।। ९२ ।।
१. [ प्रस्थाप्य ] ।
Jain Education International
२. म लोकान् ।
३. म कान्तमस्यः ।
For Private
Personal Use Only
SWA
द्वितीयः
सर्गः
[४०]
www.jainelibrary.org