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________________ वराङ्ग बिताया सर्गः सत्यार्जवक्षान्तिदयोपपन्नाः पैशून्यमायानृतलोभहीनाः । व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूया महीन्द्रपुत्रस्य मनोऽपि जहः॥ ९३ ॥ देवेन्द्रो गगनचरीभिरप्सरोभिः शैलेन्द्र स्फुटमणिभासुरे यथैव । कान्ताभिर्भवनवरे पराय॑सारे भूमीन्द्रप्रियतनयस्तथाभिरेमे ॥ ९४ ॥ इत्येवं नृपतनयस्य पुण्यमूर्तेः कल्याणं कथितमिदं सपासतस्तु । कः शक्तः सुकृतफलं समासहस्त्रैः संस्तोतुं मतिरहितः पुमानशेषम् ॥ ९५ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते विवाहवर्णनो नाम द्वितीयः सर्गः । सबकी सब सत्यभाषिणी, सरल-प्रकृति, शान्त-स्वभाव और दयाशीला थीं, चाटुकारिता, छल कपट, असत्य-वचन, B लोभ आदि दुगुणोंसे कोसों दूर थीं, पारस्परिक ईर्ष्या, रूपादिका अहंकार, पक्षपात आदि दोष उनके निकट भी न फटकते थे, फलतः उन्होंने युवराजके मनको पूर्णरूपसे चुरा लिया था । ९३ ।। देवताओं के अधिपति इन्द्र जाज्वल्यमान महामणियोंकी ज्योतिसे प्रकाशमान पर्वतराज सुमेरुपर जिस प्रकार आकाशचारिणी अद्भुत रूपवती अप्सराओंके साथ रमण करते हैं उसी प्रकार पृथ्वी के इन्द्र महाराज धर्मसेनके सुपुत्र कुमार वराङ्ग अपनी प्राण प्यारियोंके साथ,महामूल्यवान मणियों आदिसे परिपूर्ण उत्तम उद्यानों और केलिवोंमें मनचाहा रति विहार करते थे ॥९४ ॥ इस प्रकार पुण्यकी साक्षात् मूर्ति समान राजपुत्रके कल्याणकारी शुभ विवाहका यह वर्णन ऊपर अति संक्षेपसे किया है, । कारण, कोई बुद्धिहीन व्यक्ति महापुण्यके सुफलकी, हजारों वर्ष कहकर भी क्या निःशेष स्तुति कर सकता है ॥ ९५ ॥ चारों वर्ग:समन्वित, सरल शब्द-अर्थ रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें विवाह वर्णन नामक द्वितीय सर्ग समाप्त । [४१] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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