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बराङ्ग
चरितम्
तृतीयः सर्गः अरिष्टनेमिर्वरधर्मभूमिः' प्रणष्टकर्माष्टकभूरिबन्धः । विशिष्टनामाष्टसहस्रकोर्तिविंशतीर्थाधिपतिर्बभूव ॥१॥ तस्याग्रशिष्यो वरदत्तनामा सदृष्टिविज्ञानतपःप्रभावात् । कर्माणि चत्वारि पुरातनानि विभिद्य कैवल्यमतुल्यमापत् ॥ २॥ उदारवृत्तहरुकसत्तपस्कर्नानद्धिभिः साधुगणैरनेकैः । महात्मभिस्तबिजहार देशान् धर्माम्बवर्ष जगते च वर्षन् ॥३॥ पुराकरग्राममडम्बखेडान्विहृत्य भव्याम्बुजबालभानुः । धर्मप्रभावं व्यपदेष्टुकामः पुरं क्रमेणोत्तममाजगाम ॥ ४ ॥
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तृतीय सर्ग
श्रीवरदत्तकेवली इस युगमें बाइसवीं वार श्रीअरिष्टनेमि प्रभुने सद्धर्म तीर्थका प्रवर्तन किया था। संसारके सम्पूर्ण धर्मोके मुकुटमणि समान जिन धर्मरूपी महातरुके लिए वे नेमिनाथ भगवान भूमिके समान थे, उन्होंने अनादिकालसे बँधे आठों कर्मोंके जटिल बन्धनोंको समूल नष्ट कर दिया था इसीलिये लोकोत्तर एक हजार आठ नामों ( सहस्रनाम स्तवन ) द्वारा गणधर, इन्द्रादि महापुरुषोंने उनके यशकी स्तुति की थी।॥ १॥
श्रीनेमिप्रभुके सर्वप्रधान शिष्य वरदत्त महाराजने सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और प्रशस्त तप ( सम्यक्चारित्र ) की दुर्धर-सफल साधनाके प्रभाव द्वारा अनादिकालसे बँधे अत्यन्त प्राचीन चारों घातिया ( ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय ) कोंकी पाशको छिन्न-भिन्न करके अनुपम केवल ( पूर्ण, अनन्त ) ज्ञानको प्राप्त किया था ॥ २ ॥
___वही वरदत्तकेवली संसारके कल्याणकी भावनासे जिनधर्मरूपी अमृतकी मूसलाधार वृष्टि ( उपदेश ) करते हुए अनेक महात्मा मुनियोंके साथ नाना देशोंमें विहार कर रहे थे। उनके संघके सब ही मुनिराजोंका सर्वांग सुन्दर चारित्र, अतिक्रम आदि दोषोंसे रहित था, तपस्या अत्यन्त दुर्द्धर और शास्त्रानुकूल थी, तथा वे सब ही नाना ऋद्धियोंके स्वामी थे ।। ३ ।।
भव्यजीवोंरूपी कमलोंके अन्तरंग और बहिरंग विकासके लिये प्रातःकालके सूर्यके समान मुनिराज वरदत्तकेवली अपने १. क °वरदत्तभूमिः।
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