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बराङ्ग चरितम्
क्रियाविधिक्षेत्रगुणैरुपेतः ।
भद्रान्वयो भद्रमना विनीतः मधुप्रभाख्यः सुविभक्त गात्रः पूर्व प्रदेशोन्नतचारुकुम्भः ॥ ९ ॥ तमिन्द्रसेनो वरवारणेन्द्र बज्जिघृक्षुर्धमानतः । लेखेन साम्ना रहितेन तेन संप्रेषयामास स दूतवर्यम् ॥ १० ॥ ततो हि दूतः पथि काननानि नदीगिरिप्रस्रवणान्तराणि । देशान्वजन्प्रामवरांश्च पश्यन् स देवसेनस्य विवेश देशम् ॥ ११ ॥ क्रमात्पुरं तल्ललिताभिधानं प्रपासभोद्यानविशेषरम्यम् ।
शनैः समासाद्य स दूतमुख्यो ददर्श भूपं विधिनोपसृत्य ॥ १२ ॥ ततस्तु राजा प्रतिमुच्य लेखं लेखोपचारेण च वाचयित्वा । विज्ञाय लेखार्थमपेतसामं' चिक्षेप लेखं कुपितो धरण्याम् ॥ १३ ॥
वह हाथियोंकी भद्र नामक जातिमें उत्पन्न हुआ था, हृदयसे शान्त था, भली-भाँति शिक्षित किया गया था, कार्य करना, विधिको समझना, क्षेत्रको पहिचानना आदि गुणों का भंडार था उसके शरीरका अनुपात तथा अंगों का विभाग आदर्श स्वरूप था, तथा उसके सुन्दर सुडौल गण्डस्थलोंका आँगेका भाग ऊँचा था ॥ ९ ॥
इस मधुप्रभ नामके आदर्श हाथीको मथुराका राजा इन्द्रसेन प्रेमपूर्वक न मांगकर बलपूर्वक ललितपुरके अधिपतिसे छीन लेना चाहता था । वह अपनी प्रभुता और कोशके अभिभानमें इतना चूर था कि उसने जिस पत्रको लिखकर उक्त हाथीकी चाह प्रकट की थी उसमें सामनीतिका नाम ही न था । अपने बहुमान्य दूतको इस प्रकारके पत्रके साथ उसने भेजा था ॥ १० ॥
वह दूत भी मार्गमें भाँति-भाँति के वनोंको देखता हुआ, उन्नत पर्वत, गम्भीर नदी तथा पर्वतोंसे बहते हुए मनोहर झरनोंको लांघता हुआ, अनेक देशों में प्रवास करता हुआ तथा उत्तम ग्रामोंको देखता हुआ क्रमशः महाराज देवसेनके राष्ट्रकी सीमामें जा पहुँचा था ॥ ११ ॥
दूतका आना
इसके उपरान्त धीरे-धीरे वह उस राजधानी के पास जा पहुँचा था जिसका ललितपुर नाम सार्थक ही था क्योंकि वह उद्यानों, पियाउओं, अतिथिशालाओं, सभा आदिके द्वारा अत्यन्त मनमोहक थी । मथुराधिपति के दूतने धीरेसे नगर में प्रवेश करके राजसभाके उपयुक्त शिष्टाचारपूर्वक महाराज देवसेनके दर्शन किये थे । १२ ॥
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अभिमानको ठेस
महाराज देवसेनने भी दूतके हाथसे लेखको लेकर खोला था तथा बाह्य शिष्टाचारके अनुसार उसको पढ़ा भी था ।
१. कसात्वं ।
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षोडशः
सर्ग:
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