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बराक चरितम्
स ताम्रनेत्रः स्फुरिताधरोष्ठः कोपादविज्ञाय परात्मशक्ती । निर्भर्त्स्य दूतं परुषैर्वचोभिर्वामेन पादेन ममर्द लेखम् ॥ १४ ॥ अपेत सामानि वचांसि राजा जगाद दूतं पुरतः स्थितं तत् । उक्तेन किंवा बहुना शृणु त्वं युद्धादृते तस्य न शान्तिरस्ति ॥ १५ ॥ समस्त सामन्तधनानि यानि विक्रम्य जग्राह पुरा बलेन । तान्येव जीर्यन्त्वलमन्यवित्तैः श्रमव्ययाक्षेमकरैरनथैः ॥ १६ ॥
भो दूत आस्तां नृपतिस्त्वदीयो निजेन राज्येन हि तुष्टिमेतु । स्थाने न चेत्स्थास्यति सर्वथान्यं संस्थापयिष्याम्यहमेत्य तत्र ॥ १७ ॥
पढ़कर उसने देखा कि पत्रमें 'साम' का नाम ही न था और उद्धततासे भरा हुआ था। फलतः उसका क्रोध भभक उठा था, और लेखको उसने भूमिपर फेंक दिया था ।। १३ ।।
क्रोधके कारण महाराज देवसेनके नेत्र लाल हो गये थे, आवेशके वेगसे ओठ काँप रहे थे । क्रोधने विवेकको ढक लिया था फलतः उन्हें अपनी और शत्रुकी शक्तिका ध्यान ही न रहा था उन्होंने दूतको कठोर शब्द ही न कहे थे अपितु भर्त्सना भी की थी, इतना ही नहीं मथुराधिपके पत्रको उसके दूतके सामने ही पैरसे मसल दिया था ।। १४ ।।
इतनेसे भी उनका क्रोध शान्त न हुआ था, सामने विवश खड़े दूतसे उन्होंने जो वचन कहे थे उनमें साम ( शान्ति ) की छाया तक न थी । उन्होंने कहा था 'बहुत कहने से क्या लाभ ?' ।। १५ ।।
मथुराधिपकी भर्त्सना
तुम सुनो, हे दूत युद्ध के बिना इस अपमानकी शान्ति हो ही नहीं सकती है । तुम्हारे राजाने इसके पहिले आक्रमण करके अपने पराक्रमके बलपर सब सामन्त राजाओंकी जो विपुल सम्पत्ति छीन ली है उसे ही वह पचानेका प्रयत्न करे । उसके सिवा अब दूसरोंको और अधिक सम्पत्ति या वैभवको अपहरण करनेका प्रयत्न न करे। कारण; ऐसा करने में उसका विपुल परिश्रम ही व्यर्थं न जायगा अपितु उसके अशुभ तथा अन्य अनर्थोंका होना भी बहुत संभव है ।। १६ ।।
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त ? तुम्हारे राजाको अब शान्त रहना चाहिये । उसे अपने राज्यके वर्तमान विस्तारसे ही संतोष करना चाहिये । उपयुक्त स्थान या मर्यादा है, उसके भोतर ही यदि वह न रहेगा तो मैं ही वहाँ आकर किसी दूसरे व्यक्तिको उसके सिंहासन पर बैठा दूँगा, इसमें थोड़ा भी सन्देह मत करो ॥ १७ ॥
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षोडशः
सर्गः
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