SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गन्धर्वविद्याधरनागयक्षा योगीश्वराश्चाप्रतिसत्त्ववीर्याः । प्रियाः स्वका मुत्युमुखं 'प्रयान्ति त्रातुं न शेकुर्मम कास्ति शक्तिः॥ ९३ ॥ जन्माणवे मोहमहातरङ्गे जरारुजामृत्युभयप्रकीर्णे । निमज्जनोन्मज्जनसंप्रयुक्तं वृथा हि किं मां शरणं वृणीध्वम् ॥ ९४ ॥ इष्टवियोगोऽप्रियसंप्रयोगो जातिर्जराव्याधिरनित्यभावः। यदीह न स्युर्मरणानि लोके रति जन्मन्यय कस्य न स्यात् ॥ ९५॥ जवेन नृणां वपुरायुर धावन्त्युपस्थास्यति सा जरा च । जरापरिक्षीणबलेन्द्रियाणां मृत्युस्ततो नेष्यति कोऽत्र रागः ॥ ९६ ॥ अष्टाविंशः सर्गः इस पृथ्वीपर उत्पन्नहम मनुष्योंकी अपेक्षा गन्धर्वो, विद्याधरों, नागकुमारों तथा यक्षोंकी ही शक्तियां अनेक गुनी हैं। इनसे भी बढ़कर वे सब परमयोगो थे जिनके योगसिद्ध सत्त्व, पराक्रम तथा साहसके सामने कोई टिक भी न सकता था। किन्तु उनको आँखोंके सामने ही कालने उनको प्रियाओं को गलेसे नीचे उतार लिया था और वे रक्षा न कर सके थे, तब मुझमें कितनी । शक्ति है ॥ ९३ ॥ जन्म मरण मय यह संसार एक महासागर है, मोहरूपी ऊँचो, ऊँची भयंकर तरंगें इसमें उठ रही हैं। रोग, बुढ़ापा A आदि अनेक भयानक जन्तुओंसे यह व्याप्त है। और मैं स्वयं इसमें निरुद्देश्य होकर बार-बार डूबता उतराता हूँ, तब आप लोग व्यर्थ ही मुझे क्यों अपना सहारा बना रहे हैं । ९४ ।। रोग, बुढ़ापा-मृत्यु सौभाग्यसे मनुष्य जीवन में प्रियजनोंका वियोग न होता तथा अनिष्ट और अप्रिय पदार्थोंका समागम न होता, बार-बार जन्म-मरण न होते । जोवनमें रोग तथा बुढ़ापा न होता। यह जीवन चिरस्थायो होता तथा अपनी और अपने प्रियजनोंकी । मृत्यु न होती, तो कोई ऐसा विवेकी जीव न होता जो इसे पाकर फिर छोड़नेका नाम भी लेता? ।। ९५ ।। हम देखते हैं कि मनुष्योंको आयु, शरोर तथा विभव, वैभव प्रबल वेगसे किसी विपरीत दिशामें दौड़े जा रहे हैं । देखतेदेखते ही शैशव, किशोर तथा युवा अवस्थाओंको पार करके बुढ़ापा आ दबाता है। वृद्धावस्थाके पदार्पण करते ही शारीरिक ॥ [५७८] शक्ति विदा लेती है और समस्त इन्द्रियाँ अपने विषयोंके भोगमें शिथिल हो जाती हैं, इस प्रकार दुर्बल देखकर मृत्य भी ले में भागती है तब इससे राग क्यों ? तब इस जोवनसे कैसे प्रीति को जाय ? ।। ९६ ।। १.[प्रयान्तीस्त्रातुं ] । RERSARDARIRATRAILEELARATHI www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy