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________________ अष्टाविंशः सर्गः चरितम् इत्थं वाणा नृपतिप्रियास्ताः सुताम्रनेत्रान्तजलाविलास्याः । प्रत्यनवोन्निर्गतरागबन्धः ॥९॥ यमस्य नाथोऽपि महाप्रतापो वज्रायुधः प्रज्वलितप्रभावः । साक्षान्नवीं मृत्युमुखात्सुनालां स्थातुं परः कः पुरुषस्त्रिलोके ॥ ९०॥ अनेककोटयप्सरसां समूहाः सामानिकाद्यास्त्रिदशेश्वराश्च । शक्रालयाच्छक्रमधः पतन्तं न जातु संतारयितुं समर्थाः ॥११॥ ये चक्रविक्रान्तदशानभोगास्तदर्धभोगाच्च सितासिताङ्गाः । देवासुरेभ्योऽभ्यधिकप्रभावास्ते मत्युनोता मम का कथेयम् ॥ ९२॥ TRAILERRHEREIAS- रोते-रोते रानियोंके नेत्रकमल लाल हो गये थे, मुखकमल अश्रृजलसे परिप्लावित हो रहे थे। उक्त प्रकारके प्रेम तथा भक्ति सूचक वचन कहकर वे सबकी सब सम्राटको अपने स्नेहकी पाशमें फंसा लेना चाहती थीं। किन्तु वरांगराज उस समय रागके बन्धनोंकी पहँचसे परे थे फलतः रानियोंके वचन सुनकर राजाने इस युक्तिसे उन्हें समझाया था ।। ८९ ॥ विवेक-नोरोध संसार भरकी जन्म-मृत्युके तथोक्त नियन्त्रक यमका प्रताप अप्रमेय है। वज्ररूपो सर्व-मारकशस्त्रके धारक इन्द्रका । प्रताप तोनों भुवनोंमें व्याप्त है तथा उस सूर्यके विषयमें तो कहना हो क्या है जिसके आतप और उद्योत सृष्टिके जोवनके आधार हैं। किन्तु यह भी मृत्युका सामना नहीं कर पाते हैं। तब तोनों लोकोंमें दूसरा ऐसा कौन पुरुष है जो मृत्युको प्रतिद्वन्दिता कर सके ।। ९०॥ एक इन्द्र के कुटुम्बमें कई करोड़ अतिशय गुणवती अप्सराएं रहती हैं। प्रत्येक इन्द्रके सहायक तथा सेवक सामानिक, त्रायस्त्रिश, परिषत्, आत्मरक्ष आदि ही नहीं अपितु अनेक इन्द्र भी होते हैं। किन्तु जब आयुकर्म समाप्त होनेपर इन्द्र अपने विमानसे पतित होता है उस समय उन मेंसे कोई अथवा वे सबके सब भी उसे नहीं रोक पाते हैं ।। ९१ ॥ जिन्होंने अपने चक्रके पराक्रमसे षट्खण्ड क्षेत्रको पददलित किया था, जो लोग (भोगभूमिया जोव ) वस्त्रांग आदि दश प्रकारके कल्पवृक्षोसे मनवाञ्छित भोग सामग्री प्राप्त करते हैं अथवा जिन विद्याधरोंको पांचों प्रकारके ही भोग प्राप्त हैं। तथा जिनके शरीर कृष्ण तथा गौर होते हैं। तथा वे महापुरुष जिनका प्रभाव और सिद्धि देवों तथा असुरोंसे भी बहुत बढ़ो-चढ़ी थो। उन सबको भी 'मृत्यु घसीट ले गयी थी। तब मुझ कौन पूछेगा ( बचायेगा) तब मेरे ऐसे साधारण व्यक्तिको तो चर्वा हो व्यर्थ है ।। ९२॥ १. [ साक्षादविः"""स नालं ]। क सनाला । IssantshrINSPIRELESED [५७७ ॥ SHAHARA Jain Education internationes For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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