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वराङ्ग चरितम्
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भवरप्रसादोदित सर्वसौख्याः
पादद्वयालम्बितजीविताशाः । त्यक्तास्त्वया किं करवामे हेऽद्य गच्छाम वा कां गतिमद्य नाथ ॥ ८५ ॥ आधानतः स्नेहनिबद्धरागा नाथेन चात्मप्रियबान्धवास्ताः । कृतापराधाश्च वनभर्त [-] कथं नु नस्त्यक्तुमियेष भक्ताः (१) ॥ ८६ ॥ अनन्यनाथा विमतीरपुण्या जहीहि नास्मान्नगतीर्वराकाः । त्वया विना नेत्रनिमेषमात्रं न शक्नुवं स्थातुमपि क्षितीश ॥ ८७ ॥ जलेन होना इव पद्मवत्यः करेणवो वोज्झितयूथनाथाः । जिजीविषात्मा' न वयं नरेन्द्र स्वया विमुक्ता ध्रुवमित्यवैहि ॥ ८८ ॥
प्राणनाथ ! आपके अनुग्रहका ही यह फल है कि हम इस अभ्युदय और समस्त सुखोंकी स्वामिनी हो सकी हैं। हमारा जीवन तो आपके दोनों चरण-कमलोंकी निकटतापर हो निर्भर है। इस परिस्थितिमें आपके द्वारा छोड़ दिये जानेपर आज हम क्या करेंगी ? अथवा अब आपके बिना हमारो कौन-सी गति है जिसका हम लोग अनुसरण करें ॥ ८५ ॥
जिस दिनसे हे प्रभो ! आपने पाणिग्रहण किया है उस क्षणसे हमारा स्नेह और प्यार आपपर ही केन्द्रित हो गया है। हमारे सहोदर बन्धुबान्धव भी उतने प्रिय नहीं हैं जितने कि श्रीचरण हैं। इसके सिवा हे नाथ! हमने आपके प्रति किसी भी प्रकारका अपराध भी तो नहीं किया है ॥ ८६ ॥
मोह-माया
फिर क्या कारण है कि स्वामी हम सबको छोड़कर चले जाना चाहते हैं। हमारा आपके सिवा कोई दूसरा रक्षक नहीं हो सकता है। हम स्वयं बुद्धिहीन हैं। पुण्यात्मा तो हैं ही नहीं। अतएव आप हम लोगों को इस रीतिसे न त्यागें । देखिये, आपके सिवा हमारी तो कोई दूसरी गति है हो नहीं। हम सर्वथा दीन हैं। हे क्षितीश ? आपसे वियुक्त होकर हम एक निमेष मात्र समयके लिए भी जीवित नहीं रह सकती हैं ॥ ८७ ॥
पानी सूख जानेपर कमलिनियोंका जो दुखद अन्त होता है हाथियोंके झुण्डके अधिपति मदोन्मत्त हाथोसे वियुक्त हो जाने परमत्त हथिनियोंकी जो दयनीय अवस्था हो जाती है, उसी विधिसे हे नरेन्द्र ! तुमसे वियुक्त होकर हम सब भी जीवित न रहेंगी इतना आप अटल तथा ध्रुव सत्य समझिये ॥ ८८ ॥
१. क करवामदेा । २. [ भर्ता ] ।
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३. [ न शक्नुमः ] ।
४. [ जिजीविषामो ] ।
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सप्तविंश: सर्गः
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