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________________ बराङ्ग चामलमा अष्टाविंशः परितम् स्वभावभद्राः श्रुतिशीलशुद्धा भर्तृ प्रियाचारवचोविभूषाः । कृतापराधा इव ता विलोक्य क्षमध्वमित्येवमुवाच राजा ॥ ८१॥ तद्वाक्यवाताहतविह्वलाङ्गयः प्रम्लानमाला इव दीनवक्त्राः। आक्रम्य यन्तः स्रवदश्रुनेत्रा निपेतुरुर्वीपतिपादयोस्ताः ॥ ८२॥ हिमाहतानामिव पद्मिनीनां पद्मानि वातातपशोषितानि । वियोगभीतानि मुखानि तासां प्रम्लानदृष्टयाप्रियतां प्रजग्मुः ॥८३ ॥ प्रोत्थाप्यमाना वसुधेश्वरेण मुहूर्तमात्रादुपलब्धसंज्ञाः । सगद्गदाशक्तकलप्रलापा जजल्पुरित्थं विनयानतायः ॥ ८४॥ सर्गः R सबकी सब राजपत्नियाँ स्वभावसे ही सरल और साधु थों, उनकी शिक्षा तथा आचरण प्रत्येक दृष्टिसे शुद्ध थे। वे वही काम करती थीं, उसी प्रकार हसतो बोलती थीं तथा शृंगार करती थीं जिससे उनका पति प्रसन्न हो। तो भी सम्राटको देखकर उन्हें ऐसा भान हुआ कि उन्होंने कोई अनजाने ही अपराध कर डाला है। विशेष कर जब राजाने 'आप लोग मुझे क्षमा करें।' | इस वाक्यसे कहना प्रारम्भ किया था ।। ८१ ।। - वरांगराजके इस वचन रूपी प्रभजन ( आँधी ) के थपेड़ेसे उनको सुकुमार देहलता वेगसे कांप उठी थी। देखते-देखते ही उनके मुख कमल ऐसे दोन, निस्तेज ओर कान्ति-होन हो गये थे जैसी कि मुरझायी माला हो जाती है। वे जोर-जोरसे रोने लगी थीं और आँखोंसे आँसुओंकी नदियाँ बह निकली थों। तथा वे सबको सब ही सम्राटके चरणोंमें लोट-पोट हो गयी थीं।। ८२॥ कुसुमसदृशो प्रबल तुषारपात होनेसे कुमदिनियों को जो दुरवस्था हो जाती है अथवा जोरकी आंधी अथवा प्रखर आतप (धूप ) के कारण सूख जाने पर कमलोंको शोभाका जो हाल होता है, वियोगके डरसे उन सब रानियोंके अति सुन्दर मुखोंका भी यही हाल हो गया था। दृष्टि इतनी मुरझा गयो थी कि उधर देखने तकको रुचि न होती थी।। ८३ ॥ सम्राट वरांग उनको अज्ञानजनित मूर्छाको देखकर दयासे विह्वल हो गये थे, अतएव उन्होंने स्वयं ही उन्हें उठा-उठा । कर सम्हाला था तथा वे एक मुहूर्त भरमें हो चैतन्य हो गयी थीं। किन्तु उनके गले तब भी भरे हुए थे, वे विनय और लज्जाके कारण झुककर खड़ी थीं, तब भी उनके मुखसे वाणी बाहर न हो रही थी तो भी उन्होंने निम्न प्रकारसे निवेदन किया था।।८४॥ १. [ आक्रन्दयन्त्यः ]। ELATESCENERALASAHESAREE [५७५] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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