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________________ बराङ्ग चरितम् एका गतिनि तिरस्ति लोके निरस्तरोगान्तकजन्मभीतिः । यां प्राप्य नश्यन्ति जरादयस्ते महानदीं प्राप्य यथा तृषाद्याः' ।। ९७ ॥ तां प्राप्तुमिच्छा यदि विद्यते चेयुष्माकमस्माभिसमार समेताः । उपाय एकोऽस्ति मनुष्यलोके धर्मोऽहंतां प्रापयितुं समर्थः ॥ ९८ ॥ अर्हत्प्रणीतश्रुतिसत्सहायाः सद्दर्शनोन्मीलितशुभ्रनेत्राः ।। चारित्रसन्मार्गमभिप्रपद्य सुखाकरं मोक्षपुरं प्रयामः ॥ ९९ ॥ पुरापि जैनेन्द्रमतप्रपन्ना नरेन्द्रवाक्यप्रतिबद्धतत्त्वाः । नृदेवदेव्यः समयं प्रयाय भर्ना सह प्रव्रजनं प्रपद्युः ॥ १०० ।। अष्टाविंशः __ सर्गः resmearearrespresHIPHAAN मात्ति। क्योंकि इसद शान्त हो जाते है, तथा आपकी माRemeHEIRameHAIRAHIPASHURAHARMA वैराग्यमेवाभयम् इस भयाकुल संसारमें एक ही मार्ग ऐसा है जिसको पकड़ लेनेसे अपने आप ही रोग, यम, जन्म तथा मरण, आदिके भय समूल नष्ट हो जाते हैं, और वह है निवृत्ति । क्योंकि इस मार्गपर चलते हो वृद्धावस्था, आदिका भय उमो प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार महानदी पर पहुँचनेसे भीषण प्यास, आदि शान्त हो जाते हैं ।। ९७ ।। यदि आप लोग भी इस संकट तथा भय हीन मार्गको पकड़ना चाहती हैं, तथा आपकी अभिलाषा दृढ़ है तो आप लोग भी हमारे साथ चली आइये । इस संसारके उपद्रवोंसे पार पानेका यहाँ पर केवल एक ही अमोघ उपाय है, आर वह है वीतराग प्रभु अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट सत्य धर्म सर्वभय विनाशक 'वैराग्य मेवाभय' ।। ९८ ।। रत्नत्रयमेवशरणम् केवली भगवानकी दिव्यध्वनिके आधारपर निर्मित पूर्वापर विरोध रहित शास्त्रोंकी सहायतासे सत्य श्रद्धारूपी प्रकाश (सम्यकदर्शन ) के द्वारा हमारे अन्तरंगके निर्मल नेत्र खुल जाते हैं। तब हम क्षुद्ध आचरणरूपी आदर्श मार्गपर चलने लगे गे और संसार यात्रा समाप्त करके हम लोग समस्त सुखोंके भण्डार मोक्षपुरोमें पहुँच जावेंगे ।। ९९ ॥ मेरे साथ दीक्षा लेना कोई अभूतपूर्व घटना न होगी, क्योंकि पुराने युगमें भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट धर्मको स्वीकार करके तथा वैराग्य भावनासे पूर्ण राजा ( पति ) के उपदेशको सुनकर रानियोंने तत्त्वज्ञानको प्राप्त किया था। तथा अनेक राजाओंकी पत्नियोंने इस प्रकार काल-लब्धिको पाकर अपने पति हो के साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी।। १०० ॥ 'भोग बुरे भवरोग बढ़ावें' राजाका उपदेश सुनकर रानियोंने मन ही मन विचार किया था, मधुर तथा रस परिपूर्ण भोजन, हमारे रंगरूपके उपयुक्त एक से बढ़कर एक भूषण, विविध प्रकारके विचित्र कौशेय, आदि वस्त्र, सब जातिको सुगन्धयुक्त माला, पुष्प तथा १. क तृषाढ्याः । २. [ °रमा ]। ३. [ प्रपन्नाः] । HeamSa [५७९] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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