________________
अष्टाविंशः
सर्गः
मृष्टान्नपानं वरभूषणानि चित्राणि वस्त्राण्यथ गन्धमाल्यम् । प्रासादशय्यासनयानकानि दत्त्वा चिरं नो 'नपते बभार ॥ १०१॥ चन्द्रांशवः सूर्यगभस्तयश्च खराश्च मह्यः पुरुषाश्च वाताः। न पस्पृशुर्दु:खनिमित्तभूता भर्तृप्रदानान्न कदाचिदस्मान् ॥ १०२ ॥ लताः स्वपुष्पस्त बकोत्थिताग्रा यथा न शोभा ददति प्रकृष्टाः । धौश्चन्द्रहीना च यथा न भाति तथा भवामो नपतौ प्रयाते ॥ १०३ ॥ अभूषणानादनगन्धमाल्यास्ताम्बलधपाउजनगन्धहीनाः । अमित्रवगैः परिभूयमानाः किमास्महे प्रक्षरदक्षितोयाः ॥ १०४ ॥ एवं विचिन्त्योत्तमधैर्यवन्त्यः कृतप्रतिज्ञा विगतस्पृहाश्च । स्वा नेकभक्तिस्थितिमानसाम्भाः प्रोचनरेन्द्र गतभोगतृष्णाः ॥ १०५॥
मायामन्यमान्य
सुगन्धित द्रव्य, कोमल शय्या, महार्घ आसन, सूखकर यान तथा सबसे बढ़कर अपना अनुग्रह तथा प्रेम देकर जिस पति-राजान इतने समयतक हमारा भरण-पोषण किया है ।। १०१ ।।
उस प्राणपतिके प्रेम तथा प्रबन्धका हो यह प्रताप था कि प्रतिकल चन्द्रकिरणें, तीव्र तथा दाहक सूर्यको रश्मियाँ, कंकरीली पथरीली भूमि तथा सूखी उष्ण अथवा तरल शील वाय हमारे शरीरको कभी छ भो न सकती थी यद्यपि इनका संसर्ग ही तीव्र दुःखको उत्पन्न कर सकता था ॥ १०२॥
किन्तु अब जब प्राणपति दीक्षा लेकर चले जायेंगे तो हमारी वही दीन-हीन अवस्था हो जायेगी जो कि चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर चन्द्रकान्तिसे व्याप्त आकाशकी होती है, उस समय ढढनेपर भी उसमें शोभा नहीं मिलती है । अथवा उन लताओंके समान हम सब हो जायेंगी जिनपर एक क्षण पहिले हो सुन्दर, सुगन्धित फूलोंके गुच्छे लहरा रहे हों किन्तु दूसरे ही क्षण खींचकर वे भूमिपर फेंक दो गयी हों।। १०३ ॥
सज्ज्ञान क्या हम सब आभूषणोंको फेंककर भोजन, सुगन्धित लेप, माला, ताम्बूल, धूप, अञ्जन 'सुगन्धित तैल' आदि समस्त श्रृंगारको तिलाञ्जलि देकर भी यहाँ रहेंगी। प्राणपतिके अभावमें शत्रलोग मिलकर हमारा तिरस्कार करेंगे और हम लोग आँखोंसे आठों धार आँसू बहाती हुई यहीं पड़ी रहें गी ।। १०४ ॥
जब रानियोंने उक्त सरणिका अनुसरण करके विचार किया तो उनकी सांसारिक भोग विलासकी तृष्णा न जाने कहाँ विलीन हो गयी थी। उन्हें अपने पति के प्रति एकनिष्ठ भक्ति थी, कुलीन पुत्री तथा वध होनेके कारण उनका धये भी असाधारण । १. [ नृपतिबंभार ]। २. [ परुषाश्च ]। ३. म स्तबकोथिताया। १.क विचित्रोत्तम । २. [ स्वाम्येक ] ।
For Private & Personal use only
[५८०
Jain Education international
www.jainelibrary.org