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बराङ्ग चरितम्
अष्टाविंशः
सर्गः
यद्यत्र नाथ प्रविहाय राज्यं तपःक्रियायां मतिमावधीथाः । समं त्वयैवात्र तपश्चरित्वा संसारनिष्ठामभिसंवजामः ॥१०६ ॥ इति नृपवनिता नृपेण साधं प्रविकसितोत्पलचारुपत्रनेत्राः । भुवि सुखमपहाय ताश्च सद्यस्तपसि मनांसि समादधुर्वराजयः ॥ १०७ ॥ अथ जिगमिषुतां नृपस्य बुद्ध्वा नरपतयः परितः समेत्य तूणं । दशरधिकसंभ्रमा नरेन्द्र त्रिदशपति त्रिदशा इव प्रशान्तम् ॥ १०८॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते । स्फूटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते
तारादर्शननिमित्त राज्यभोगनिर्वेगो नामाष्टाविंशतितमः सर्गः। था, पतिपर उनकी आस्था थी तथा मन उसकी ही सब कुछ मानता था । फलतः पतिके निर्णयको जानते ही उनकी समस्त अभिलाषाएँ तथा महत्त्वाकाक्षाएँ कर्पूर हो गयी थीं। उन्होंने दीक्षा लेनेका निर्णय कर लिया था, अतएव पतिसे यही निवेदन किया था ।। १०५ ॥
पति-परायणता 'हे नाथ ! यदि आप विशाल राज्य, राज्यलक्ष्मी, विभव, आदिको ठुकरा कर उग्र तपस्या करनेका निश्चय कर चुके हैं, प्रयत्न करनेपर भी यदि आपकी विचारधारा उधरसे विरत नहीं होती है, तो हम सब भी आपके ही साथ तप करेंगी और संसार भ्रमणको पार करके आपके साथ ही परमपदको दिशामें अग्रसर होवेंगी ।। १०६ ।।
उक्त निर्णयपर पहुंच सकने के कारण सुन्दर सुकुमार शरीरधारिणी राजपत्नियोंके उत्पल सदृश सुन्दर तथा मनोहर नेत्र आनन्दके कारण विकसित हो उठे थे । अपने जीवन साथी सम्राट वरांगके साथ उन्होंने भी संसारके समस्त सुखोंको छोड़ दिया था। उस समय उनके भोग विलासोंके प्रेमी चित्त पूर्णरूपसे तपस्यामय हो उठे थे ॥ १०७ ॥
त्यागकी उत्कृष्टता इसी अन्तरालमें सम्राटके समस्त राजाओंको वरांगराजके वैराग्यका समाचार मिल चुका था यह समझ कर कि सम्राट अब वन चले ही जायेंगे वे सब मित्र तथा सामन्त राजा बहुत शीघ्र हो आनर्तपुरमें आ पहुँचे थे। उनके आश्चर्य तथा आदरका उस समय अन्त न रहा था जब उन्होंने वरांगराजको स्वर्गके अधिपति इन्द्रके समान शान्त और समाहित देखा था ॥ १०८॥
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चारों वर्ग समन्वित सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें तारादर्शन निमित्त राज्यभोग-निर्वेगनाम अष्टाविंशतितम सर्ग समाप्त ।
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