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________________ बराङ्ग परितम् [एकोनत्रिंशः सर्गः] श्रीधर्मसेनप्रमुखा नरेन्द्रा वयोऽनुरूपोज्ज्वलचारुभूषाः । सभागहे रम्यतमे विशाले बरामराजेन सुखं निषेदुः ॥ १॥ पिता बराङ्गस्य नरेन्द्रमध्ये स्नेहेन सद्भावपुरस्सरेण । परामर्शस्तस्य करं करेण प्रोवाच साम्नावचनीयमर्थम् ॥ २॥ राज्यं त्वदायत्तमिदं हि सर्वमाधारभूतस्त्वमिह प्रजानाम् । विशेषतो मे नयनं तृतीयं बहिश्चरप्राण इव द्वितीयः ॥ ३ ॥ चमचमान्च । एकोनत्रिंशः सर्गः एकोनत्रिंश सर्ग सयाना संसार आनर्तपुरके विशाल तथा रमणीय सभा भवनकी शोभा उस समय सर्वथा दर्शनीय हो गयी थी। उसमें महाराज धर्मसेन आदि वयोवृद्ध राजा लोग सम्राट वरांगराजके साथ शान्तिपूर्वक यथायोग्य स्थानोंपर विराजमान थे। इन सब महारथियोंका निर्मल सरल वेशभूषा उनकी अवस्थाके अनुकूल था। ये सब लोग वरांगराजके वैरागभावको लेकर हो चर्चा कर रहे ॥१॥ वयोवृद्ध तथा आदरणीय समस्त राजाओंमेंसे सबसे पहिले वरांगराजके पूज्य पिता महाराज धर्मसेनने ही, अपने पुत्रके सांसारिक कल्याणकी सद्भावना और इसके ममत्वसे प्रेरित होकर बड़े स्नेह और दुलारके साथ वरांगराजके हाथपर हाथ । फेरते हुए कहना प्रारम्भ किया था ॥२॥ पिताका प्रेम वे जो कुछ कहना चाहते थे वह सब, वे बड़ी शान्ति और प्रीतिसे कह रहे थे । 'यह आनर्तपुर तथा उत्तमपुरका । समस्त राज्य, हे पुत्र ! तुम्हारे ही आधीन है। इन दोनों विशाल राज्योंमें प्रजाओंके सुख समृद्धिके तुम ही एकमात्र आधार हो। यह तो हुई राष्ट्रकी बात, अब मेरो निजी अवस्था भी सुन लो तुम मेरी तीसरी आँख हो तथा मेरे बाहर घूमते फिरते मूर्तिमान प्राण हो ॥ ३॥ एक क्षण भर चिन्ता कर के देखो, जब तुम दीक्षा ले कर वनमें चले जाओगे, तो तुम्हारी स्नेहमूर्ति वृद्धामाता, प्रेमप्रतिमूर्ति पतिव्रता पत्नियां, पिताभक्त-पुत्र, आदि सब ही सम्बन्धी, हे बेटा ! तुम्हारे विना अपने प्राणोंको कैसे धारण करेंगे? EDIGIPALAMARHITS [५८२) www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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