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बराङ्ग चरितम्
एकोनत्रिंशः सर्ग:
माता च पल्यस्तव पुत्रकाश्च प्राणान्त्ययेऽरं कथमत्र वत्स । त्वयि प्रयातेऽहमतोऽभियाचे नास्मद्वचो लङ्गितुमर्हसि त्वम् ॥४॥ विना शशाङ्कन नभो न भाति विना मघोना न विभासते द्यौः। विना दयां धर्मपथे न भाति न भाति राज्यं च विना स्वयेदम् ॥ ५॥ भारो यथादौ सुकरः प्रवोद् पश्चादशक्यः स तु गौरवेण । एवं तपःश्रीः सुकरावध सुदुर्धरत्वं च शनैः प्रयाति ॥६॥ आरोहणाद्धारवतो नरस्य दोामपाराम्बुनिधिप्रतारात् । सरित्प्रवेगे प्रतियातनोऽपि तपोऽतिकष्टं सुखमास्स्व पुत्र ॥७॥
अपनी तथा सबकी चिन्ता कर के हो मैं तुमसे एक वर मागता हूँ। देखो, हमारे वचनोंकी उपेक्षा करना तुम्हें शोभा नहीं देता है॥४॥
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झठा संसार सुधसूति चन्द्रमाके अभावमें आकाशको कोई शोभा ही नहीं रह जाती है। यदि इन्द्र न हो तो सब कुछ होते हुए भी स्वर्गमें कोई आकर्षण और प्रभाव न रह जायगा पूरेके पूरे धर्माचरणमेंसे यदि केवल दयाके सिद्धान्तको निकाल दिया जाय तो समस्त धर्म खोखला हो जायेगा। ऐसे ही यदि तुम चले जाओगे तो इस राज्यमें हमारे लिए कोई आकर्षण और सार न रह जायगा ।। ५॥
तपकी दुष्करता देखा जाता है कि भारोसे भारी बोझा जब प्रारम्भमें उठाया जाता है तो उसे ले चलना सर्वथा सुकर होता है किन्तु ज्यों, ज्यों आगे बढ़ते जाते हैं त्यों, त्यों उसे एक पग ले चलना असंभव हो जाता है। ऐसे ही तप है। इसको ग्रहण कर लेना अत्यन्त सरल है किन्तु जैसे-जैसे उसमें आगे बढ़ते हैं वैसे ही वह दुष्कर और कठोर होता जाता है ।। ६॥
यह लोक प्रसिद्ध है कि भारी बोझको लेकर उन्नत पर्वत आदि पर चढ़ना अत्यन्त कष्टकर है । अत्यन्त वेगवती पहाड़ी नदीमें प्रवाहके प्रतिकूल चलना उससे भी अधिक कष्टकर है तथा अपार पारावारको हाथोंसे तैरकर पार करना इन दोनोंसे भी दुखमय तथा दुःशक्य है। किन्तु स्वैराचार विरोधिनी जैनी तपस्या इन सबसे अनन्त गुणी कठिन तथा दुखमय है इसलिए हे बेटा इस विचारको छोड़कर सुखपूर्वक राज्यका सुख भोग करो ॥ ७॥ १. [ प्राणान्नयेरन्, 'न्वहेरन् ]। २. [ धर्मपयो]। ३. [ प्रतियानतोऽपि ]
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