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वराङ्ग चरितम्
एकोनत्रिंश: सर्गः
स्मरानलाचिःप्रतिदग्धवीर्या भृशन्ति' तिर्यग्मनुजासुरेन्द्राः । तं कामवह्नि शमितुं कुतस्त्वं शक्नोतिर पञ्चेन्द्रियगोचरस्थः ॥ ८॥ वयं च सद्धर्ममथाहतां हि बुवापि तत्कर्तुमशक्नुवन्तः।। गृहेषु जीर्णा विषये प्रसक्ताः पुनस्तपस्ते विषमं प्रकर्तुम् ॥९॥ मास्मत्वरिष्टाः कुरु धीर राज्यं जयारिवर्गान्विषयान्भजस्व । सहैव गत्वा च तपोवनानि तपश्चरिष्याम इहेत्यवोचत् ॥ १४ ॥ यथोपनीतक्रममादरेण निशम्य वाक्यं पितुरायतश्रीः । वराजराजः स्थितधर्मचित्तः प्रत्यब्रवीदात्महिताय धीमान् ॥११॥
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भोगोंको अजेयता विगतवार विचार करो, कामरूपो अग्निकी ज्वाला इतनी भीषण है कि उसमें पड़ते ही सुमेरुके समान महाशक्ति भी भस्म हो जाती है। यही कारण है कि विवेकी तीर्यञ्च, मनुष्य, असुर तथा इन्द्र आदि भी ब्रह्मचर्य व्रतसे भ्रष्ट हो गये हैं। ऐसी काम ज्वालाको तुम्हारा ऐसा तरुण पुरुष कैसे शान्त करे गा ? क्योंकि तुम्हारी पांचों इन्द्रियां अत्यन्त जागरूक हैं ।।८।।
अपनी बुद्धिका अहंकार आठों कर्मों के विजेता, वीतराग अर्हन्तदेवसे उपदिष्ट जैन धर्मके तत्त्वों तथा उसके महत्त्वको हम लोगोंने भी खूब समझा है। किन्तु सब कुछ समझ कर भी उसके अनुसार त्याग करनेमें असमर्थ हैं। यही कारण है कि हमारा समस्त जीवन गृहस्थाश्रममें ही बीता जा रहा है। आज भी विषय भोगको चाह ज्योंकी त्यों बनी हुई है। जब हमारी यह हालत है तो तुम्हारा तप करना तो सर्वथा ही असंगत है ।।९।।
हे धीर ! शीघ्रता मत करो, जब तक शक्य है तब तक शान्तिपूर्वक राज करो, दुर्दम शत्रुओंको पददलित करो, परम प्रिय विषयोंका यथेच्छ भोग करो। इसके उपरान्त हम लोग गृहस्थाश्रमसे विदा लेंगे और तुम्हारे ही साथ वनमें जा कर हम लोग भी तप करेंगे १० ॥
सिंह-वृत्ति राजा जैसा कि उचित और आवश्यक था उसी विनम्रता और सन्मानके साथ वरांगराजने अपने पूज्य पिताके उपदेशको सुना था। किन्तु वे विशेष विवेको थे उनका चित्त पूर्ण (अनगार) धर्मका पालन करनेका निर्णय कर चुका था। उस समय उनका प्रताप और प्रभाव अपने मध्याह्नपर थे, तो भी वे उन्हें आत्मकल्याणके मार्गसे विमुख न कर सके थे । आत्म-हितपर दृष्टि रखते हुए ही उन्होंने पितासे निवेदन किया था ॥ ११ ॥ १. [ अश्यन्ति ] २. [ शक्रोषि ]। ३. प्रशस्ता। ४. [ मा त्वं त्वरेथाः ] ।
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