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________________ बराङ्ग चरितम् धर्मार्थकामागमसाधनानि व्रजन्ति पूतां सुतरां प्रसिद्धिम् । तान्येव तत्साधनसत्क्रियाभिविपत्तिमायान्ति गते यवत्वे ॥१२॥ विशीर्णदन्तः शिथिलाङ्गसन्धिः कम्पच्छिरश्चञ्चलपाणिपादः । कराग्रदण्डो जरसा परोतः कथं तपस्तप्यति मन्दचक्षुः ॥ १३ ॥ नष्टश्रुतिलप्तशरीरचेष्टः स्खलत्पदव्याकुलमन्दवाक्यः । क्षीणेन्द्रियः क्षीणबल: क्षितोश श्रुतावान्तं कथमभ्युपैति ॥ १४ ॥ गहाद्वहिर्यातुमशक्तिमान्यो यात्वा पुन व निवतितु वा। ताग्विधः कायपरिग्रहस्य स्थानावियोगस्य च किं समर्थः ॥ १५ ॥ एकोनগিয়: सर्गः मायामाचIRURALIST स्वतन्त्रता धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों के परिपूर्ण भोगमें साधक सामग्री मनुष्योंको विना प्रयत्न किये ही प्राप्त होती है तथा मनुष्य अनायास ही उसमें लोकोत्तर रसका आस्वाद करता है। किन्तु जब यौवन ढल जाता है, तो वे सबके सब साधन तथा उनके उपयोगकी सफल प्रक्रियाएं भी ज्योंकी त्यों बनी रहनेपर भी उनका उपयोग सुखकर न होकर दारुण दुखदायी हो जाता है ।। १२ ।। जराकी छाया पड़ते ही दाँत टूट जाते हैं, शरीरका एक-एक जोड़ ढीला पड़ जाता है, आँखोंको ज्योति मन्द पड़ जाती है, शिर कांपने लगता है, हाथ पैर दुर्बल और चंचल हो जाते हैं। बुढ़ापा मनुष्यपर अपना पूर्ण प्रभाव स्थापित कर लेता है, और दृष्टि दुर्बल हो जाती है तथा वह डण्डेका सहारा लेकर चलता है। तब, हे पिताजी ! बिचारा वृद्ध, मनुष्य कैसे तप है करेगा ॥ १३ ॥ हे महाराज ! जिस पुरुष के कानाकी शक्ति नष्ट नहीं तो; मन्द हो गयो है, शरीरमें वेग और तत्परताके साथ कार्य करनेकी सामर्थ्य नहीं रह गयी है, पैर ठिकानेसे नहीं पड़ते हैं, धीरेसे बोलता है और जो कुछ बोलता है वह सब भी अस्पष्ट रहता हैइन्द्रियाँ काम नहीं करती तथा शरीर सर्वथा निःशक्त हो गया है ऐसा पुरुष किसके सहारे शास्त्र समुद्रोंका मन्थन करके ज्ञान-रूपी अमृत निकाल सकेगा ॥१४॥ 'जो लो देह तोरी' । मनुष्य बद्ध होकर घरसे बाहर आने-जानेमें भी हिचकता है। यदि साहस करके किसी तरह चला भी जाता है तो उसे लौटकर आना दुष्कर हो जाता है। ऐसा वृद्ध पुरुष क्यों करके अपने विभव तथा प्रभुतासे पृथक् होनेका साहस करेगा ? यदि में किसी प्रकार इतनी सद्बुद्धि आ भी जाये तो अपनी जीर्ण कायके द्वारा क्षुधा आदि परीषहोंको कैसे सहेगा ॥ १५ ॥ ७४ For Privale & Personal use only RautLISAIRPELLSमान्न [५८५] Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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