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________________ वराङ्ग चरितम् भूमिका वराङ्गनेव सर्वाङ्गे र्वराङ्ग चरितार्थवाक् । कस्य नोत्पादयेद्गाढ मनुरागं स्वगोचरम् ॥ वो० नि० २४६० ( १९३३ ई० ) के पहिले वरांगचरितकी स्मृति आचार्य श्री जिनसेनकृत हरिवंशपुराणके प्रथम सर्गका उक्त ३५वाँ श्लोक ही दिलाता था । असंख्य लुप्त ग्रन्थोंमें इस महान् ग्रन्थकी भी गणना होती थी। यह भी पता न था कि किस आचार्यने इसे रचा था। पद्मचरित के प्रणेता श्री रविषेणाचार्य इसके भो कर्त्ता रहे होंगे ऐसा अनुमान किया जाता था। किन्तु भण्डारकर रिसर्च इंस्टीच्यूट, पूनाकी पत्रिकाकी १४वीं प्रतिके प्रथम तथा द्वितीय भागमें डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्येका एक शोधपूर्ण लेख उक्त वर्ष ही प्रकाशित हुआ, जिसने जिज्ञासुओं को वरांगचरितके सद्भावको हो सूचना न दी थी, अपितु उसके कर्त्ता श्री जटिलमुनि, जटाचार्य अथवा जटासिनन्दिका भी पर्याप्त परिचय दिया था। इस लेख के प्रकाशन के बाद वरांग चरितको प्रकाशमें लाने के लिए विद्वान् लेखकसे सब तरफसे आग्रह किया गया और समाजके सौभाग्यसे २४६५ ( वी० नि० ) ( दिसम्बर १९३८) में यह ग्रन्थ पाठकोंके सामने आसका । उक्त लेख के विद्वान् लेखक डॉ० आ० ने० उपाध्येने लक्ष्मीसेन मठ, कोल्हापुर तथा जैन मठ, श्रवणबेलगोलकी ताड़ प्रतियोंके आधारपर इसका सम्पादन किया है तथा साहित्य मनीषी मूक सेवक पं० नाथूराम प्रेमीने इसे श्री माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के ४०वें ग्रन्थके रूप में प्रकाशित किया है । ग्रन्थ परिचय यद्यपि सके अन्त में आया वाक्य "चारों वर्गं समन्वित, सरल शब्द- अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथा"" इस ग्रन्थका चतुर्वर्ग समन्वित धर्मकथा नामसे परिचय देता है, तथापि इसके आकार, छन्द तथा अन्य प्रकारोंके आधारपर इसे संस्कृत महाकाव्य कहा जा सकता है, क्योंकि मंगलाचरण पूर्वक प्रारब्ध यह पूरी रचना इकतीस सर्गो में विभाजित है । बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा श्री कृष्णचन्द्रजो के समकालोन वरांग इसके नायक हैं। इनमें धीरोदात्त नायकके सब गुण हैं। महाकाव्य में आवश्यक नगर, ऋतु, उत्सव, क्रीड़ा, रति, विप्रलम्भ, विवाह, कुमार-जन्म तथा वृद्धि, राजसभा मंत्रणा, दूतप्रेषण, अभियान, युद्ध, विजय, राजसंस्थापन, धार्मिक आयोजन आदि के वर्णनोंसे यह व्याप्त है। वसन्ततिलका, पुष्पिताग्रा, उपजाति, प्रहर्षणी, मालिनी, अनुष्टुभ, भुजंगप्रयाता, मालभारिणी, वंशस्थ तथा द्रुतविलम्बित छन्दोंका मुख्य रूपसे उपयोग हुआ है। सगं समाप्ति बहुधा विसदृश छन्दसे की गयी है । वरांगी धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्त्तव्यपरायणता, शारीरिक तथा मानक विपत्तियों में सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक तथा आध्यात्मिक शत्रुओंपर पूर्ण विजय, आदि उसे सहज ही उत्कृष्ट धर्मवीर धीरोदात्त नायक बना देते हैं। परम्पराके अनुसार महाकाव्य में तीससे अधिक सर्ग नहीं होने चाहिये किन्तु इसमें एकतीस हैं । १. सेठ माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमालाका ३२वाँ ग्रन्थ, पृ० ४। २. " इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गं समन्विते स्फुट शब्दार्थ सन्दर्भे वरांगच रिताश्रिते ।” ३. "अविकत्थनः क्षमावानति गम्भीरो महासत्त्वः । स्थेयान्निगूढमानो धीरोदात्तो दृढव्रतः कथितः ॥ साहित्यदर्पण, सर्ग ३, श्लोक ३२ । For Private & Personal Use Only Jain Education International LIK भूमिका E [५] www.jainelibrary.org.
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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