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________________ नाना वराङ्ग चरितम् भूमिका कथावस्तु-भगवान् अर्हन्त उनका धर्म तथा सर्वदर्शी ज्ञान रूप रत्नत्रयके नमस्कार पूर्वक ग्रन्थका प्रारम्भ होता है। महापुराणके समान कथा प्रबन्ध, उपदेष्टा तथा श्रोताके लक्षण तथा भेदोंका विवेचन है। फिर कथा प्रारम्भ होती है विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थित उत्तमपुरमें भोजवंशी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे। इनकी तीन सौ रानियोंमें गुणवती पट्टरानी थी इसी देवीकी कुक्षिसे कुमार वराङ्ग उत्पन्न हुए थे । मंत्रियोंसे विमर्श करके धर्मसेनने वयस्क वरांगका दश कुलीन पुत्रियोंके साथ व्याह कर दिया था। कुछ समय बाद भगवान् अरिष्टनेमिके प्रधान शिष्य वरदत्त केवली उत्तमपुर पधारे धर्मसेन सकुटुम्ब वन्दनार्थं गये, तथा राजा द्वारा प्रश्न किये जानेपर कवेलोने धर्म और तत्त्वोंका उपदेश दिया। संसारके कारण कर्मों, लोकों, तिथंच गति, मनुष्यगति तथा लोक, स्वर्ग तथा मोक्षका विशेष विवेचन किया था। वरांगके पूछनेपर मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वका विवेचन । किया था। जिससे प्रभावित होकर कुमारने अणुव्रतोंको धारण किया था। वरांगको युवराज पद देनेपर इनकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या होती है। ये सुबुद्धि मंत्रीसे मिलकर षड्यन्त्र करते हैं । मंत्रिके द्वारा शिक्षित दुष्ट घोड़ा वरांगको जंगलकी ओर ले भागता है तथा कुमार सहित कुएं में जा पड़ता है। किसी प्रकार कुएँसे निकलकर वरांग जब दुर्गम वनमें आगे बढ़ते हैं तो व्याघ्र पीछा करता है तथा किसी हाथीकी सहायतासे ये उससे छुटकारा पाते हैं। इसी प्रकार एक यक्षी इन्हें अजगरसे बचाती है तथा इनके स्वदार-संतोष-व्रतकी परीक्षा लेकर इनकी भक्त हो जाती हैं वनमें भटकते युवराजको बलिके लिए भील पकड़ ले जाते हैं किन्तु साँपके द्वारा डेसे भिल्लराजके पुत्रका विष उतार देनेके कारण इन्हें मुक्ति मिल जाती है और यह सेठ सागरबुद्धिके बंजारेसे मिलकर उसे जंगली डाकुओंसे बचा लेकर कश्चिद्भट नामसे अज्ञात वास करते हैं । सेठ सागरबुद्धिके धर्मपुत्रकी भाँति ललितपुरमें रहते हए वे सेठोंके प्रधान हो जाते हैं। इधर उत्तमपूरमें इनके माता, पितादि धार्मिक जीवन बिताकर वियोगके दुःखको भर रहे थे। हाथीके लोभसे मथुराधिपने ललितपुरपर आक्रमण किया तो कश्चिद्भटने उसको परास्त करके फिर अपने पराक्रमको पताका फहरा दो । कृतज्ञ ललितपुराधिपने अपना आधा राज्य तथा लड़की वरांगको दी। वरांगके लुप्त हो जानेपर सुषेण उत्तमपुरके राज्यभारको सम्हालता है और अपनी अयोग्यताओंके कारण शासनमें असफल रहता है। उसकी इस दुर्बलता तथा धर्मसेनके बुढ़ापेका अनुचित लाभ उठानेको इच्छासे बकुलाधिप उत्तमपुरपर आक्रमण करता है तथा धर्मसेन ललितपुराधिपसे सहायता मांगते हैं। इस अवसरपर वरांग जाते हैं और बकुलाधिपके दाँट खट्टे । कर देते हैं। तथा जनताके स्वागत और आनन्दके बीच अपनी नगरीमें प्रवेश करते हैं। अपने विरोधियोंको क्षमा करके वरांग पितासे दिग्विजयकी अनुमति मांगते हैं । वे नये राज्यको स्थापना करते हैं जिसको राजधानीका निर्माण सरस्वती नदीके किनारेपर आनर्तपुर नामसे हुआ था। यहाँपर वे विविध-ऋतुओंका आनन्द लेते हैं । अपनी पट्टरानीको श्रावकाचारका उपदेश देते हैं तथा महान् जिनमन्दिरका निर्माण कराके विशाल जिन बिम्बकी प्रतिष्ठा पूरे धार्मिक आयोजनके साथ कराते हैं । नास्तिकमतोंका निरूपण करके वे अपने मंत्रियोंका सन्देह निवारण करते हैं तथा उन्हें जिनधर्मज्ञ परम श्रद्धानी बना देते हैं। अपनी प्रजाका ज्ञान तथा सुख बढ़ानेके लिए ये तत्वार्थ तथा पुराणोंका उपदेश देते हैं । अनुपमा महारानीकी कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगात्र रखा जाता है। एक दिन वरांगराज आकाशसे टूटते तारेको देखते हैं और उन्हें संसारकी अनित्यताका तीव्र भान होता है। वे दीक्षा यश MP30PATWARI Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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