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________________ वराङ्ग सप्तदशः सर्गः चरितम् सप्तदशः सर्गः अथावनीशो मतिमद्भरायः स्वबन्धुभिर्मन्त्रिभिराप्तवर्गः। संमन्त्र्य युद्धाभिमुखस्तदैव स्वाहूतवान्सागरवृद्धि सूनुम् ॥ १॥ कश्चिद्भटः स्वर्ललितैर्वयस्यैर्वणिम्भिरन्यैश्च समेत्य तर्णम् । सिंहासनस्थं वसुधेन्द्रसिंह ददर्श सोऽन्तर्गतहर्षभावः ॥२॥ अन्योन्यनामश्रवणाभिरागावन्योन्यमुद्वीक्ष्य च संप्रहृष्टौ।। ज्ञानंश्च' नेयेऽथ नरेश्वराय वक्तुं वराङ्गो न विवेद राजा ॥३॥ स्थितं पुरस्ताद्विनयं प्रयुज्य सल्लक्षणैरूजितसर्वगात्रम् । समीक्ष्य नागेन्द्र समानलीलं कश्चिद्भट भूपतिरित्थमूचे ॥ ४ ॥ सप्तदश सर्ग सविचार निमंत्रण उस समय महाराज देवसेन समर यात्रा करनेके लिए प्रस्तुत थे अतएव कश्चिद्भटकी प्रशंसा सुननेके बाद उन्होंने परम विवेकी पूज्य पुरुषों, अपने भाई बन्धुओं, मंत्रियों तथा अन्य विश्वासास्पद पुरुषोंके साथ कश्चिद्भटके विषयमें मत विनिमय किया था । तथा उसकी समाप्ति होते ही सेठ सागरवृद्धिके परमप्रतापी धर्मपुत्रको आदरपूर्वक बुलाया था ॥१॥ वह अपने समवयस्क, सुन्दर सेठोंके पुत्र तथा मित्रोंके साथ अत्यन्त त्वराके साथ राजसभामें जा पहुंचा था, जहाँपर पृथ्वीके पालक राजाओंमें सिंहके समान पराक्रमी महाराज देवसेनको उसने सिंहासनपर विराजमान देखा था ॥२॥ महाराज देवसेन तथा तथोक्त कश्चिद्भटके बीच एक दूसरेका नाम सुनते ही पारस्परिक अनुराग उत्पन्न हो गया था फलतः जब उन दोनोंने एक दूसरेको देखा तो वे बड़े संतुष्ट तथा प्रसन्न हुए थे। कश्चिद्भट ( वरांग) महाराज देवसेनको वास्तवमें जानता था फलतः वह न सोच सका था कि महाराजसे क्या कहे तथा कुछ समय पर्यन्त नरेश्वरकी भी यही अवस्था थी ॥३॥ युवराज (कश्चित्भट ) पूर्ण विनय तथा शिष्टताके साथ महाराज देवसेनके सामने खड़े थे, उनके कान्तिमान तथा तेजस्वी शरीरपर शुभ लक्षण चमक रहे थे । ललितेश्वरने श्रेष्ठतम हाथोके समान उन्हें निर्भय खड़ा देखकर निम्न प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया था ॥४॥ १. [ जानश्च ]। २. [ ततु] । [३०९) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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