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________________ बराङ्ग चरितम् TRA यो भूपतेर प्रतिकूलकारी योऽनर्थतासंशमनं करोति । यो वा युधि स्थैर्यमत न जह्याद्यो वा सहायत्वमुपैति युद्धे ॥ ५ ॥ यो दर्शयेद्युक्तिमतीं च नीति हितप्रवृत्ति प्रतिबोधनाय । Jain Education International स एव बन्धुश्च सुतश्च मित्रं गुरुर्गरीयानिति लोकसिद्धम् ॥ ६ ॥ तथापि मैत्री 'ध्रुवमावयोस्तु पुरातनी काचिदिहापि चास्ति । अकृत्रिम प्रेम गुणावबद्ध स्त्वयि स्वबन्धाविव मेनुरागः ॥ ७ ॥ मत्पुण्यतो वा तव भाग्यतो वा महाजनानां सुकृतप्रभावात् । जित्वा रिसैन्यं यदि संनिवृत्तो दास्यामि ते मत्सुतयार्धराज्यम् ॥ ८ ॥ ततो बृहद्रत्न पिनद्धहारं किरीट' केयूरककुण्डलानि । प्रलम्बसूत्रं कटिबन्धनं च पट्टे च तस्मै प्रददौ नरेन्द्रः ॥ ९ ॥ सस्नेह स्वागत जो व्यक्ति भूपाल तथा उसके शासनके विरुद्ध आचरण ( षड्यन्त्र ) नहीं करता है, राष्ट्र या राजाके विकासमय उपस्थित हुए अनर्थोंको शान्त करता है, घनघोर संग्राम में सब ओरसे आक्रमण होनेपर भी जिसका धैर्य और कर्त्तव्यबुद्धि अस्त नहीं होते हैं जो अकस्मात् ही कहींसे आकर युद्धमें सहायता देता है ॥ ५ ॥ विपत्ति आक्रमणके कारण हित-अहित विवेकहीन व्यक्तियोंकी आँखें खोल देनेके लिए जो व्यक्ति ऐसी नीति बतलाता है जो सर्वथा युक्तिसंगत हो तथा कल्याणकारी कार्य करनेको कहता है वही सच्चा बन्धु है, है तथा श्रेष्ठतम गुरु भी वही है' यह सारे संसार में प्रसिद्ध सिद्धान्त है ॥ ६ ॥ वही पुत्र है, मित्र इसके अतिरिक्त इस भवमें ही हम दोनोंके बीच कोई प्राचीन प्रेम सम्बन्ध अवश्य रहा है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं किया जा सकता है, क्योंकि मेरा अनुराग तुमपर वैसे ही बढ़ रहा हैं जैसा कि अपने किसी निकटके बन्धु बान्धवपर होता है । तथा उसका कारण कोई कृत्रिम सम्बन्ध नहीं है अपितु अकृत्रिम प्रेम ही उसका एकमात्र बन्धन है ॥ ७ ॥ मैं अपने पुण्य कर्मों के प्रतापसे, अथवा तुम्हारे सौभाग्यसे अथवा राज्योंमें बसनेवाले सज्जनोंके शुभ कर्मोंके कारण इस युद्ध में शत्रुको सेनाको जीतकर यदि लौट आया, तो अपनी पुत्रीके हाथके साथ तुम्हें अपना आधा राज्य भी दूँगा ॥ ८ ॥ इस प्रकार से अपने अनुरागको वचनों द्वारा प्रकट करके ललितेश्वरने रत्नोंको पिरोकर बनाया गया बड़ा तथा बहुमूल्य हार, शिरका लघु मुकुट, केयूर, कुण्डल, बहुत लम्बा सूत्र, कमरबन्ध तथा पदका द्योतक पट्टा उसे समर्पित किया था ||१९|| १. मद्र पमावयोस्तु | २. क तिरीट । For Private & Personal Use Only सप्तदशः सर्गः [ ३१०] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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