________________
प्रथमः
वराङ्ग चरितम्
ताराधिपः कुमवषण्ड विकासदक्षः शीतैः करैर्नभसि संविबभौ यथैव । नित्यं प्रियाकुमुदषण्डवचोमयूखैर्मयां तथैव वसुधाधिपपूर्णचन्द्रः ॥ ५५ ॥ आफूल्लचारुविमलाम्बुरुहाननस्य आजानुलम्बपरिपीनभुजद्वयस्य । श्रीवक्षसः खलु मृगेन्द्रपराक्रमस्य स्वान्तःपुरं पुरपतेस्त्रिशतोबभूव ॥ ५६ । युक्ताधिरोहपरिणाहसमन्विताङ्गयो हंसीस्वनाः सुगमनग्रहणस्वभावाः । लज्जावपूविनयविम्रमचारुवेषास्तुल्यावलोकननिरन्तरसौहृदाश्च फुल्लारविन्दवदना वरचारुनेत्राः फुल्लारविन्दकुसुमोरुशुचित्वगन्धाः । फुल्लारविन्दवरकान्तिगुणावदाताः फुल्लारविन्दवरकोमलपाणिपादाः ॥५८॥
सर्ग:
शीतल-शीतल किरणों द्वारा कुमुदकी कलियोंको विकसित करनेमें प्रवीण ताराओंका अधिपति चन्द्रमा जैसा आकाशमें सुशोभिताहोता है उसी प्रकार अपनी पलियोंके मुखरूपी कमल कलियोंको मधुर वचनरूपी किरणोंसे प्रफुल्लित करता हुआ यह राजा पृथ्वीपर उदित दूसरा चन्द्रमा हो प्रतीत होता था ।। ५५ ॥
उसका मुख पूर्ण विकसित सुन्दर और स्वच्छ लाल कमलके समान लालिमा और लावण्यसे पूर्ण था। उसकी खूब पुष्ट । और गठी हुई दोनों भुजाएँ घुटनों तक लम्बी थीं । वक्षस्थलमें लक्ष्मोके निवास का चिह्न था और मृगोंके राजा सिंहके समान उसका प्रचण्ड पराक्रम था । उत्तमपुरके राजा महाराज धर्मसेनके अन्तःपुरमें केवल तीन सौ रानियाँ थीं ॥ ५६ ।।
अन्तःपुर इन सबही रानियोंके शरीरकी ऊँचाई तथा परिणाह (चौड़ाई या घेरा ) अनुपातिक थे अर्थात् समचतुरस्र संस्थान था, बोली हंसीके समान मधुर, स्पष्ट और धीमी थी । स्वभावसे ही उन सबकी गति सुन्दर और मन्थर थी। स्त्रियोचित लज्जाकी तो वे मूर्तियाँ थीं। विनम्रता और कुलीनता तो उनके रोम-रोममें समायी थी । वेशभूषा सुन्दर और शिष्ट थी और पतिकी प्रेमदृष्टि और अनुग्रह सबपर एकसे होने कारण उनका पारस्परिक सखीभाव भी गाढ़ था ।। ५७ ॥
उन सबके खिले हये मुख और बड़ी-बड़ी मनोहर आँखें कमलोंके समान आल्हादजनक थीं। उनके श्वास और शरीर1 की गन्ध तुरन्त खिले कमलोंसे निकलती सुगन्धित वायुके समान परम पवित्र और उन्मादक थी। उनके दोषरहित शील, आदि
श्रेष्ठगुण प्रातःकालके खिले हुये श्वेतकमलके समान निर्मल थे। उनके हाथ पैर भी विकसित लाल कमलों के समान कोमल और मनमोहक थे ।। ५८।।
१. म कुमुदखण्ड ।
२. कपरिणाम |
For Private & Personal Use Only
wwww.jainelibrary.org
Jain Education International