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________________ बराम द्वादशः चारखर आहोस्वित्कनकमयं शरावपात्रं तन्निष्ठां व्रजति यदीह मषिकाभिः। श्रद्धेयः' किमु घृतपूरितो गुडावतः श्रीमोदस्थित इति मुषिकाबिलेषु ॥८६॥ एवं ये अतिबलसत्त्वसारयुक्ताः सेवाज्ञामतिविभवोरुवर्यवन्तः । अवस्थामतिविकृतामधाश्नुवोरन् कि बण्यं मृगपशुभिः समान पुंसः ॥ ८७ ॥ निर्मुच्य स्वजनगतं मनः पृथुश्रीरात्मानं स तु वृतिसंपदावलम्ब्यम् । पीत्वाम्भो विगततषो यवावनीन्द्रः स्नानार्थं जलममलं शनैर्जगाहे ॥८८॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुवर्गसमन्विते स्फूटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते युवराजसरोदर्शनो नाम द्वादशमः सर्गः। सर्गः कि वायुके झोंकेके मारे चापसे चलने (उड़ने) लगे और टुकड़ों का ढेर होकर आँधीमें उड़ जाय तो बतलाइये कि सूखे पत्तोंका बड़ा भारी ढेर भी क्या आँधीके झोंके सह सकेगा? जो बेहद हल्का होता है स्वभावसे ही अत्यन्त चंचल होता है तथा साधारण वायुके झोंकेसे भी उड़ने लगता है ।। ८५ ।। विचित्रा कर्मपद्धतिः अथवा यों समझिये कि मजबूत पक्के मिट्टीके सकोरेको सोनेसे भरा जाय और यदि वह भी चहोंके द्वारा कुतरा जाकर सदाके लिए कुगति (नाश) पा जाता है तो क्या चहोंके बिलमें रखा गया श्रीमोदक ( उत्तम लड्डू) सुरक्षित समझा जा सकेगा, जबकि उस मोदकसे घी टपकता हो और गुड़ अथवा शक्कर उसमें बड़ी मात्रामें मिलायी गयी हो ।। ८६ ॥ जो पुरुष धैर्य, शारीरिक तथा मानसिक बल, विवेक तथा सहनशक्ति आदि गुणोंसे परिपूर्ण हैं, जिनमें सेवकों, आज्ञाकारियों, सुमति, विभव तथा परिस्थितियोंको पैदा करके उन्हें बनाये रखनेको असीम (घृति ) शक्तिकी कमी नहीं है वे भी । पूर्वकृत पाप-कर्मोंके उदय होनेसे, इस प्रकार सरलतासे हुई ऐसी महाविकृत दुःखमय अवस्थामें जा पड़ते हैं । तो जो मनुष्य हिरण आदि पशुओंके समान इन्द्रियोंके दास दुर्बल और ज्ञानहीन हैं, उनको तो कहना ही क्या है ।। ८७ ।। आध्यात्मिक विशाल लक्ष्मीके स्वामी राजकुमारने, माता-पिता, बन्धु-मित्र, पत्नियों आदिके स्मरणमें लीन मनको 'येन केन प्रकारेण' उधरसे मोड़कर अपने आपको धैर्य और सहनरूपी महाशक्तिके सहारे खड़ा किया था-अर्थात् घरके लोगोंकी मधुर स्मृतियोंको भूलकर सामने खड़ी विपत्तियोंको धैर्यपूर्वक सहनेका निर्णय किया था। युवक राजाने पानी पीकर अपनी प्यास-4 को शान्त कर दिया था, इसके उपरान्त उसने शारीरिक क्रान्तिको भी कम करनेकी इच्छासे स्नान करनेका निर्णय किया था। इस निर्णयको पूरा करनेके हो लिए वह उक्त जलाशयके निर्मल बलमें धीरे-धीरे धुसा था ।। ८८ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें युवराज-सरोदर्शन नाम द्वादशम सर्ग समाप्त। १. क शुद्धेयुः। २. [ श्रीमोदः ]। ३.क समेषु । ४. समवृति , [शमधृति ]। ५. [ द्वादशः] । For Private & Personal Use Only wwww.jainelibrary.org ने शारीमयपूर्वक सहनेका महाशक्तिक मत पत्नियों से Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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