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________________ बराज योदशः चरितम् सर्गः त्रयोदशः सर्गः सरः प्रविष्योत्पलफुल्लपकूकं प्रकृष्टकारण्डवसारसाकुलम् । मृदा कबायेव महापहारिमा निघृष्य 'सस्नावनकुलमात्मनः॥१॥ पुनः सरोऽन्तर्गतरागमानसः स्वकर्मनिष्पत्तिफलप्रचोदितः। श्रमव्यपोहार्थमगाघवारिणि ततार दोा सुतरं तरङ्किणि ॥ २॥ चिरं हि तीर्वा कमलोत्पलान्तरे तरङ्गसंगप्रविधौतदेहिनः । विनिर्ययासोः महसानुसृत्य तं जग्राह नक्रश्चरणं महीपतेः ॥३॥ विबुध्य नक्रग्रसनं स दुर्धरं बलाद्वहिनिष्पतितुं समुद्यतः । अशक्नुवन्क्षीणबलो निरास्पदो विचिन्तयामास विषण्णमानसः ॥ ४॥ त्रयोदश सर्ग कर्मगति जलाशयमें उत्पल और पंकज खिले हुए थे, उच्च जाति के बगुला और सारसोंके समूहसे वह परिपूर्ण था । उसमें उतरकर राजकुमारने अपने शरीर पर कशेली मिट्टी को मला जो कि मैलको छुटा सकती है तथा शरीरको खूब रगड़-रगड़कर अपनी इच्छाके अनुकूल पूर्ण स्नान किया था ।। १॥ इस प्रकार राजकुमारके हृदयमें तालाबके बोचमें जाकर गाता लगानेको रुचि उत्पन्न हो गयी थी, इस रुचिके आकर्षणसे, अथवा अपने पूर्वकृत कर्मों का फल वहाँ उस रूपमें मिलना हो था अतएव भवित्तव्यताको प्रेरणा से ही उसने मार्ग की थकान तथा रात्रि जागरणकी क्लान्तिको दूर करनेके हो लिए अपने आप तालाब के लहरोंसे आकुल अगाध जलपर हाथोंसे तैरना प्रारंभ कर दिया था ॥ २ ॥ इसके बाद उत्पलों और कमलोंके बीच काफी देर तक तैरता रहा, वहाँपर लहरोंके थपेड़ोंसे उसका शरीर धुलकर स्वच्छ हो गया था अतएव निकलने की इच्छासे वह ज्यों ही मुना था कि अकस्मात् पोछा करके किसी घड़ियालने युवक राजा का परे पकड़ लिया था ॥ ३ ॥ मह पता लगते ही कि घड़ियालने पैर को अत्यधिक दृढ़ताके साथ दातोंसे दबा लिया है उसने पूरी शक्ति लगाकर बाहर निकल भागनेका प्रयत्न तत्परताके साथ प्रारम्भ किया। किन्तु उसका शारीरिक बल लगातार आयो विपत्तियोंके कारण । १. म स स्नात्यनु। २. [ सुतरां । ३. म तरङ्गरङ्ग । salmsमच्यायमचETELLITERA [२१५] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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