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________________ वराङ्ग चरितम् सर्गः पञ्चेन्द्रियाणां विषयाननूनान्यः प्राप्तवान्पुण्यफलोदयेन। स एव पूजितपुण्यनाशान्नैकेन्द्रियं तर्पयितु समर्थः ॥ ८१॥ य एव पर्याप्तसुखार्णवस्थः श्रीमङ्गलाशीर्वचनैः प्रणतः । दुर्भाष्यमाणस्त्वपि वासुकुन्तैर्दुःखार्णवे स क्षणतः पपात ॥ ८२॥ एवंविधानां हि महद्धिकानां नैकाकररग्रामपुराधिपानाम् । सूर्यत्विषामूच्छितपौरुषाणां यद्यावदीदृक्क्षणतोऽभ्युपैति ॥ ८३ ॥ नित्यं परप्रेषणतत्पराणां नक्तंदिवं क्लेशसहस्रभाजाम् । निकृष्टवृत्तित्वमुपागतानां किमस्ति वाच्यं कृमिमानुषाणाम् ॥ ८४ ॥ यद्येवं शकटमयोमयं सुबद्धं तत्स्याच्चेदनिलबलेरणप्रणीतम् । योद्धण्डं प्रचयकृतं प्रभज्जनेयं कि तिष्ठेदतिलघुचञ्चलस्वभावम् ॥ ५॥ चाचा-चURSIODELESEPSIGHTFAGUGRमाचामाच्या पुण्यकर्मोंके उदयके कारण जिस राजकुमारको पहिले पाँचों इन्द्रियोंके भोग्य विषय परिपूर्ण मात्रामें यथेच्छरूपसे प्राप्त होते थे, उसीके पुण्यकर्मोकी फलोन्मुख शक्तिके उदयके रुक जानेके कारण वही राजकुमार आज एक इन्द्रियको भी शान्त करने में असमर्थ था ।। ८१ ॥ सब प्रकारसे परिपूर्ण सुखोंके समुद्र में आलोडन करते हए जिस युवक राजाकी लोग मंगल गीतों और स्वस्ति-वाचन आदि आशिषमय वचनीसे स्तुति करते थे वही सर्वगुणसम्पन्न राजकुमार जब शिवा (सेही) तथा उल्लू आदि पक्षियोंके कर्णकटु कुशब्दोंको सुनता था तो अपने भाग्य परिवर्तनको सोच सोचकर एक क्षणमें वही दुःखके महासमुद्रमें डूबने और तैरने लगता था ।। ८२॥ युवराज वरांग ऐसे अतुल तथा असीम वैभव और प्रभुताके स्वामियोंका, जिनके राज्यमें एक, दो नहीं अपितु अनेक विशाल नगर, सम्पत्तिको उद्गम खनिक बस्तियाँ तथा सम्पन्न.ग्राम हों, इतना ही नहीं जिनका प्रताप सूर्यके समान सम्पूर्ण विश्वको आक्रान्त कर लेता हो, पूर्व पुरुषार्थ ( पुण्य ) के नष्ट हो जानेपर उनकी भी जो, जितनी समस्त सम्पत्ति होती है वह, उक्त प्रकारसे क्षणभरमें लुप्त हो जाती है।। ८३ ।। तब फिर उन नरकीटोंका तो कहना ही क्या है जो सर्वदा दूसरोंकी आज्ञाको कार्यान्वित करनेके लिए तत्पर रहते हैं, दिन-रात हजारों प्रकारके क्लेशोंको भरते हैं तथा जिनकी जीविकाके साधन अत्यन्त निक्रिष्ट हैं ।। ८४ ॥ यदि कोई गाड़ी लोहा-लोहा हो लगाकर उत्तम प्रकारसे अत्यन्त दृढ़ बनायी जाय और यदि वह भी ऐसी हो जाय १. म स्त्वसिवासकुन्ती , [स्त्वपि वा शकुन्तः, स्त्वशिवं शकुन्तैः ] | २. म नवाकर । ३. म कृति । ४. म यत्पत्रं । ५.क तिष्ठेदतिचलनस्व' । . [२१३1 Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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