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________________ चतुर्विक सर्गः गृहमप्युदितं भगवद्धनेन भवदीयं ननु यस्य दीपतलम् । चरकैवरगन्धमाल्यधूपाः स च कि दास्यति निर्धनः परेभ्यः? ॥ २४ ॥ वरमन्त्रपदैः सुसंस्कृतं यद्धविमादाय समक्षतोऽत्ति काकाः । बलिभुक सुशृगालविप्रलिप्ता: स हि कि रक्षति दुर्बलः परं स्वम् ॥२५॥ क्षुधितः परिदाप्य तं भृगालो विबलं छागमुपाहरेत्प्रसह्य । पुरुषानपि तान्प्रसह्य तद्वद्यदि गृह्णाति स एव देवदेवः ॥ २६ ॥ पललोदनलाजपिष्ठपिण्डं परदत्तं प्रतिभुज्यते च येन । स परानगति कथं बिभर्ति धनतृष्णां त्यज देवतस्तु तस्मात् ॥ २७ ॥ ग्रहोंको भी देखिए, उनका भी उदय तब ही होता है जब कि आप अपना धन खर्च करते हैं । उनकी अनुकूलताके लिए जलाये गये दीपकोंमें आपका हो तेल जलता है। आप ही प्रसन्न करनेके लिए उसे विकसित श्वेत कमलों आदिकी सुगन्धित मालाएँ तथा और ऐसे ही अनेक पदार्थ चढ़ाते हैं। तब जो स्वयं इतना निर्धन है दूसरोंको क्या देगा ॥ २४ ॥ ___ हवन सामग्री बड़े यत्नके साथ स्वच्छ तथा क्षुद्ध रूपमें बनायी जाती है, तब कहीं श्रेष्ठ मंत्रोंके उच्चारणके साथ-साथ । हवनकुण्डमें छोड़ी जाती है। किन्तु होताओंके सामने ही कौआ, आदि नीच पक्षी उसमेंसे चोंचें भरकर खाते हैं । अब प्रश्न यह है कि जो देवता सियार, आदि नीच पशुओंकी जूठो बलि खाता है, उस विचारेमें कितनी सामर्थ्य होगी और जो स्वयं इतना दुर्बल है वह दूसरोंकी क्या रक्षा करेगा ।। २५ ।। देवताको चढ़ाये गये दुर्बल बकरेपर भूखा सियार अवसर पाते ही झपटता है और आराध्य देवताकी अवज्ञा करके बल-4 प्रयोगसे उस ( बकरे ) को ले भागता है । इसी प्रकार अनुकूल अवसर आते ही वह शृगाल उन मनुष्योंको भी बलात्कारपूर्वक ले भागता है जिन्होंने रक्षा पानेके लिए बलि चढ़ायी थी ॥ २६ ॥ अतएव वह शृगाल ही परमदेव क्यों नहीं माना जाता है ? जो पूज्य देवता दूसरोंसे समर्पित पशु आदिका मांस, भात, 8 लावा, आटेके पिण्ड आदि पदार्थोंको खाकर ही जोवन बिताता है, वह पराश्रित देवता उन दूसरे व्यक्तियोंका भरण पोषण कैसे करेगा या जिनके जीवन निर्वाहका कोई उपाय ही नहीं रह गया है उन्हें क्या, कहाँसे देगा। इन सब युक्तियोंका भरण-पोषण सामने रखकर देवकी कृपासे धन पानेकी इच्छाको सर्वथा छोड़ दो ।। २७ ॥ १. म न दीप यस्य। २.म चरकेवर। ३. म स किं। ४. [ काकः]। ५. [प्रलिप्तः] । [४७२] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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