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________________ बराज परितम् चतुवशिः सर्गः इति मन्त्रिवरैः प्रहृष्टमर्थ प्रविचार्यात्मनि दृष्टधर्मतत्त्वः। नृपतिर्मधुराभिधानयुक्तं वचनं प्रारभत प्रवक्तुमेवम् ॥ २०॥ बहुदृष्टिनिविष्टदुर्मतीनां कुकवीनामथवान्यभि'प्रपन्नाः। अतिमुग्धतया नरा विबोदधं परमार्थान्न हि शक्नुवन्ति बालाः ॥ २१ ॥ यदि देवनियोगतो महद्धिं लभते चन्मनुजस्त्वरोगतां वा। सुतभा ["] मवद्यलब्धियुक्तं स तु देवः कथमेति दैवभावम् ॥ २२ ॥ यदि तस्करको यजेत विद्वान वरमित्थं स्त्वथ............। उभयोर्यजनं प्रतिगृहीता ननु देवो विमतिः स किं करोति ॥ २३ ॥ विशेष तत्त्वोंको आप भलीभांति जानते हैं। इतना ही नहीं आप अति सूक्ष्म समस्त नयों ( पदार्थका एक दृष्टिसे विचार करना) 4 को भी जानते हैं अतएव उक्त विकल्पोंमें वास्तविक तत्त्व क्या है इसे आप स्पष्टरूपसे हमें समझानेका कष्ट करें ॥ १९ ॥ सम्राट वरांगने धर्मके सार तथा तत्त्वोंके रहस्यको समझा था फलतः मंत्रियोंके द्वारा उपस्थित किये गढ़ प्रश्नोंको सुनकर एक क्षणभर मन ही मन उनपर विचार करके नृपतिवरने मधुर तथा सरल भाषामें निम्नशैलीसे उत्तर देना प्रारम्भ किया था ।। २०॥ दैववाद विचार 'संसारके मनुष्य अत्यधिक भोले तथा श्रद्धालु हैं। उनको उपदेश देनेवाले तथाकथित कवि (ज्ञानी ) लोगोंकी दूषित है बुद्धि परस्पर विरोधी एक-एक प्रकारकी श्रद्धाको लेकर चलती है अतएव वे सब कुकवि हैं । वे कुछ शब्दों द्वारा ही समझा जाने । योग्य विषयको भी बहुत खींच तान कर अस्पष्ट वाक्यों द्वारा बताकर भोले जीवोंको और अधिक सन्देहमें डाल देते हैं। परिणाम यह होता है कि स्वभावसे ही अज्ञ संसारी मनुष्य शुद्ध तत्त्वको नहीं समझ पाते हैं ।। २१ ॥ यदि संसारी मनुष्य केवल देव अथवा भाग्यको अकारण कृपाके बलसे ही असीम सम्पत्तिको प्राप्त करते हैं ? स्वस्थ शरीर पाते हैं, अनुकूल पत्नी तथा गुणी पुत्रके संसर्गका सुख भोगते हैं, तो केवल एक ही प्रश्न उठता है कि यह दैव भी उस बिशाल देवपनेको कैसे प्राप्त होता है, जिसके कारण निश्चित वस्तुका समागम सर्वदा सत्य होता है ।। २२॥ यदि कोई चोर किसी देवको पूजा करे तथा दूसरा विद्वान भो विवेकपूर्वक उसी देवकी उपासना करे और यदि दोनोंको ही अपने-अपने मनचाहे ( भले-बुरे ) वरदानोंको प्राप्ति हो जाती है । तो यहो प्रश्न उठता है कि चोर तथा साहूकार दोनोंकी विशाल पूजाको स्वीकार करनेवाला वह बुद्धिहीन देवता करता ही क्या है ।। २३ ॥ १. कन्यभिप्रसंगा, [ वाक्यविप्रपन्नाः ] । २. म यचेत । [४७१] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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