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बराङ्ग चरितस्
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अयमिन्द्रसमो महर्द्धिकी
विभवेनाप्रतिमेन लोकपालः ।
वपुषा यशसा च कामदेवः कुत एतत्त्रयमस्य संशयो नः ॥ १६ ॥ 'पुरुषैचिरकालकर्म दैवाद्रग्रहतो वात्र नियोगतः स्वभावात् । प्रलयस्थितिसंभवाः प्रलानां नियताद्यैरिति लोकसत्प्रवादः ।। १७ ।। इति पक्षबहुत्वयोगतस्ते न समर्था गदितुं स्वपक्षमेकम् । अनपेक्षिततत्व' दृष्टि चेष्टाः परिपप्रच्छुरथावनीन्द्र मित्थम् ॥ १८ ॥ सदसन्नियतिस्वभावपक्षा विदिता लौकिक वैदिकास्त्वयेश । विविधांश्च नयानवैषि सूक्ष्मान्वद तस्वमसंशयं प्रभो नः ॥ १९ ॥
राजाकी स्तुति
'अपनी असीम ॠद्धि तथा विमल यशके कारण हमारे सम्राट साक्षात् इन्द्रके समान हैं। यह लोकपाल भी हैं, कारण कोई भी राजा महाराजा विभवमें इनकी समता नहीं कर सकता है। इनकी शारीरिक कान्ति, स्वास्थ्य तथा जनसाधारणको अनुरक्त बनानेकी क्षमता इतनी बढ़ी हुई है कि उनके आधार पर यह सशरीर कामदेव ही प्रतीत होते हैं । किन्तु विचारणीय विषय यही है कि यह अकेला उक्त तीनों देवतामय कैसे हैं ? हमारी यही शंका है ॥ १६ ॥
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संसारमें यह सर्वमान्य कहावत है कि युगके प्रारम्भमें हुए विशेष पुरुषोंने अपने शुभ कर्मों के प्रतापसे अथवा दैवकी प्रेरणासे, अथवा जीवन पथके निर्माता ग्रहोंकी अनुकूलता के कारण, अथवा किसी विशेष आत्माके नियोगके वशमें होकर अथवा संसारके स्वभावकी अबाधगति के प्रवाह में पड़कर संसारकी प्रजाके जन्म, स्थिति तथा नाशकी चिरकाल पर्यंन्त व्यवस्था की थी ।। १७ ।।
संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाशको लेकर उक्तरूपके अनेक विकल्प तथा मान्यताएँ होनेके कारण, वे मंत्री किसी एक मतको निश्चित करके यह कहने में असमर्थ थे कि हमारा यही मत है। इस मूल प्रश्नकी वे उपेक्षा भी नहीं कर सकते थे क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से विचार करने तथा उसे आचरणमें लाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी । अतएव उन सबने पृथ्वीपति aire सामने निम्न प्रश्न उपस्थित किया था ।। १८ ।।
धर्मप्रश्न
'हे प्रभो ? लोकाचार के अनुसार कौन-सा पन्थ सत्य है अथवा असत्य है, कौन-सी प्रवृत्ति स्वाभाविक है तथा कौन-सी वैभाविक है। इसी क्रमसे वैदिक ( ज्ञानमय ) आचारमें क्या सत् है, क्या असत् है ? निश्चित क्या
स्वाभाविक क्या है इत्यादि
१. [ पुरुषेश्वर° ] २. [ प्रजानां ] ।
३. म 'सत्वदृष्टि ।
४. म तत्त्वं न संशयं ।
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चतुर्विंश: सर्गः
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