________________
बराङ्ग
चतुर्विशः
चरितम्
नियमश्च यमैवतोपवानिरवीरपि दानधर्मयोगैः। जिनदेवविशेषपूजनैश्च प्रययौ पर्वसु भूपतेः स कालः ॥ १२॥ स कदाचिदतुल्यधीसिंहः स्वभुजध्वंसितशत्रुसैन्यवीर्यः । प्रविवेश सभागृहं नरेन्द्रो मतिमद्धिर्वरमन्त्रिभिश्च शिष्टः ॥ १३ ॥ मणिहारकिरीट'पट्टचिह्नः प्रचलत्कुण्डलचारुधृष्टगण्डः । स मगेन्द्रवरासने निषण्णो विबभौ भानरिवोदयस्य मनि ॥१४॥ वितुद्धियशःश्रिया ज्वलन्तं शरदीवामलपूर्णचन्द्रसौम्यम् । नपति प्रसमीक्ष्य मन्त्रिवर्गः प्रजजल्प स्वमनोगतं वचस्तत् ॥ १५॥
सर्गः
दिनानि यान्ति त्रयसेवयव किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वह काम तथा अर्थ पुरुषार्थके सेवनमें ही लीन था क्योंकि ज्यों ही अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व आते थे त्योंही वह नूतन नियम, यम, व्रत विशेषकर उपवास, सब तरहके दोषोंसे रहित निःस्वार्थ दान, धर्म योग आदिको धारण करता था। तथा श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवकी विशेष पूजाका आयोजन करके ही विशाल वसुन्धराके अधिपतिका समय बीतता था ॥ १२॥
सम्राट वरांगकी बुद्धिको कोई समानता न कर सकता था। वह मनुष्योंमें सिंह ( श्रेष्ठ) थे। अपने बाहुबलके द्वारा ही उन्होंने शत्रुओंकी विशाल सेनाओंको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उनके सबके सब मंत्री परम विवेकी तथा राजनीतिके ऐसे पंडित थे कि उस समयके सब राज्योंके मंत्रियोंसे श्रेष्ठ माने जाते थे। इन्हीं शिष्ट मंत्रियोंके साथ सम्राट वरांग राजसभामें एक दिन पधारे थे ॥ १३ ।।
राजसभामें आकर जब वे सिंहोंकी आकृतियोंके ऊपर बने हए सून्दर आसनपर आकर बैठे तो अपने मणिमय हारसे निकलती हुई किरणोंके द्वारा, जाज्वल्यमान मुकूटके आलोकसे, राज्यपदके प्रधान चिन्ह पट्टकी प्रभाके कारण तथा गालोसे रगड़ते हये चंचल तथा चारु कुण्डलोंकी कान्तिसे मख आलोकित हो उठने पर ऐसे शोभित हो रहे थे जैसा कि दिनपति सूर्य । उदयाचलके शिखर पर उदित होकर लगता है।॥ १४ ॥
निर्मल तथा सर्वव्यापी यश असीम सम्पत्ति तथा परिपूर्ण शोभाके कारण वे जगमगा रहे थे, तो भी शरद पूर्णिमाकी रात्रिको उदित हुए पूर्णचन्द्रके सदृश उनकी कान्ति परम सौम्य थी। इस ढंगकी अद्भुत शोभासे समन्वित सम्राटको देखकर मंत्रियोंके मनमें अनेक भाव उदित हुए थे, जिन्हें रोकना उनके लिए असंभव हो गया था फलतः उन्होंने कहना प्रारम्भ किया था ॥ १५॥ १. क तिरीट।
बालबाREATRENDER
[४६९)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org