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एकविंशः
वराङ्ग चरितम्
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वरागवाक्चनन्दनतोयबिन्दुभिस्त्रयः समाप्यायितमानसास्तदा । प्रहर्षफुल्लाननपङ्कजाः पुनर्व्यपेतशोकाः स्वगृहं ततो ययुः ॥ १७ ॥ गतेषु तेषु त्रिषु मित्रभावतः प्रतापदाक्षिण्ययशोबलान्वितः। स्वयं जगामोदधिवद्धिना सह पितुः सकाशं खलु कार्यवत्तया ॥१८॥ यथोचितन्यायपथेन संश्रितः प्रणम्य पादौ पितुरायतश्रियः। मनोभिसंधारितकार्यगौरवः कृतावकाशं शनकैय॑जिज्ञपत् ॥ १९ ॥ प्रशास राजस्वकुलोचितां महीं सुषेण एषोऽपि तदर्धभाक्पुनः । अहं च राज्ये विनियोजितस्त्वया नृपाः पुरेऽस्मिन्कथमासते त्रयः ॥ २०॥
सर्गः
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ऐसी क्षमाको तो दैवकृत क्षमा ही समझना चाहिये।' युवराज वरांगके नीतिपूर्ण उदार वाक्योंरूपी चन्दन-जलकी बूंदोंसे सुषेण-माता, सुषेण तथा धोवरमंत्रो इन तीनों के मन अत्यन्त शोतल हो गये थे, उनके मुख कमल हर्षातिरेकके कारण विकसित हो उठे थे। इसके अतिरिक्त उनकी अनिष्टकी आशंका तथा शोक समूल नष्ट हो गये थे। वे सब निश्चित होकर अपनेअपने महलोंको लौट गये थे ।। १७ ।।
पुरुषार्थ निश्चय युवराजके अनुपम क्षमाभावने सुषेण आदि तीनोंके हृदयोंको मैत्रीभावसे रंग दिया था। अब वे भी युवराज वरांगको अपना सच्चा हितैषी मानते हुए लौट गये थे। तो वह अपने अपने धर्म पता सेठ सागरवृद्धि के साथ आगे करणीय विशेष कार्योंके विषयमें मतविनिमय करनेके लिए अपने पिता महाराज धर्मसेनके पास गया था । कारण, वही उसके वीरोचित कार्य करनेका समय था क्योंकि उस समय उसके प्रताप, नीतिनिपुणता, कीति तथा सैन्य, मंत्र आदि शक्तियाँ अपने मध्याह्नको प्राप्त हो चुकी थीं ।। १८॥
विशाल तथा विस्तृत लक्ष्मोके अधिपति पिताके समक्ष युवराज वरांग शास्त्रोक्त मर्यादा तथा शिष्टाचारपूर्वक उपस्थित हुए थे। वहाँ पहुँचकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उचित आसनपर बैठ गये थे और मन हो मन करणीय कार्योंके महत्त्वके विषयमें ऊहापोह करते रहे थे। जब महाराज अन्य कार्योंसे निवृत्त हो गये थे तब उन्होंने धीरे-धीरे अपने कार्यके विषयमें निवेदन किया था ।। १९ ॥
युक्तिसंगत प्रश्न हे महाराज ! अपने पूर्वजोंके समयसे चले आये इस उत्तमपुर राज्यपर आपके श्री चरणोंका शासन है हो । मेरे सौतेले भाई सुषेणका भी आधे राज्यपर जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके सिवा आप सब लोगोंके गुरुचरणोंने मुझे भी इस पदपर नियुक्त कर दिया है। इस प्रकार वर्तमानमें तीन राजा यहाँ वर्तमान हैं। अब आप हो बतादें कि एक हो नगरमें तोन राजा एक साथ कैसे रह सकते हैं ।। २० ।।
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-SETTESHParmes
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