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________________ बराङ्ग परितम् पंचविंशः श्वभिः शृगालैरपि गृध्रकाकैः सगर्दभैः सूकरचासकूमः । यान्यत्र लब्धान्यशुचीनि तैश्च दत्तानि तान्येव तु किं द्विजेभ्यः ॥ ६८॥ नापुत्रका लोकमिमं जयन्ति नापुत्रकाः स्वर्गगतिं लभन्ते । इतीह पक्षो यदि यस्य पुसः कुमारभूरि प्रति नो निविष्टाः ॥ ६९ ॥ यद्यच्च लोके बहुभिर्न दृष्टं तत्तत्प्रमाणं यदि यस्य न स्यात् । वेदश्रुतीहासपुराणधर्मास्ते ब्राह्मणैकेन न तु प्रदिष्टाः ।। ७० ॥ असत्प्रसूतिस्त्वसतो यदि स्याच्छशस्य शृङ्गान्मृगतृष्णिका स्यात् । सतः प्रसूतिस्त्वसतो यदि स्याटस्य बीजं शशशृङ्गतः स्यात् ॥ ७१ ॥ सर्गः तथा प्रकार सब ही गुण उनके दानको वस्तुके हो समान होते हैं, ऐसी एक किंवदन्तो हमारे संसारमें प्रचलित है ।। ६७ ।। ब्राह्मण दानका रहस्य अब देखिये कुत्ते और सियारके जन्मको भरनेवाले क्या पाते हैं ? गौध और काक किन वस्तुओंपर टूटते हैं ? गदहे । और सुअर किन वस्तुओंपर जोते हैं ? तथा चाष ( नीलकण्ठ ) और कछुओं की जीविका क्या है ? ये सबके सब इस जन्ममें अशुचि और वीभत्स पदार्थोंको छोड़कर और क्या पाते हैं ? तो क्या मान लिया जाय कि इन सबने पूर्वभवमें ब्राह्मणोंको अशोभन, अपवित्र पदार्थ ही दिये होंगे ॥ ६८ ॥ जिसके पुत्र नहीं पैदा होते हैं वह इस संसारका भी पार नहीं पाता है, जो पुत्रहीन हैं वे सब स्वर्गको गमन करनेका सुअवसर तो पा ही नहीं सकते हैं । इत्यादि सिद्धान्तको जो सज्जन मानता है तथा इसका प्रचार करता है, मालूम होता है कि उसका विचार अथवा दृष्टि उन बहुसंख्य महात्माओंकी ओर गयो हो नहीं है जो कि आजीवन ब्रह्मचारी रहे थे ।। ६९ ॥ जिन पदार्थोंको अथवा घटनाओंको इस लोकके बहुसंख्य पुरुषोंने सावधानीके साथ नहीं देखा है, वह वस्तुएँ तथा उनके स्वरूप प्रामाणिक नहीं हैं, जिस विचारकका मूल सिद्धान्त यही है, क्या उसे यह ज्ञात नहीं है कि चारों वेद, श्रुतियां समस्त स्मृतियां, इतिहास, पुराण तथा अन्य समस्त धर्मशास्त्रोंको केवल एक ब्रह्मा ही ने तो अपनो अशरीर वाणीके द्वारा प्रकट किया था, फिर भी वे प्रमाण क्यों हैं ।। ७० ॥ प्रमाण मीमांसा ____एक असत् ( वह पदार्थ जो किसी इन्द्रियसे ग्रहण नहीं किया जा सकता है तथा जिसको सत्ताको किसी भी प्रमाणसे । सिद्ध नहीं किया जा सकता है ) पदार्थसे यदि किसी दूसरे असत् पदार्थकी उत्पत्ति संभव है तो सियारके सींगसे मृगतृष्णा क्यों न । १. क शूकरभास , [ सूकरचाष° ] । [५०४] For Private & Personal Use Only Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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