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________________ HIRO वराङ्ग चरितम् विजेश्च कार्यदि भुक्तमन्नं मृतान्पितॄस्तर्पयते परत्र । पुराजितं तत्पितभिविनष्टं शुभाशुभं तेन हि कारणेन ॥ ६४ ॥ 'स्वस्नात्सुताद्यः स्वयमेव पुत्रो जातिश्च जातिस्मर एवं कश्चित् । विनाशभुङ्क्ते पितृपिण्डमन्नं ततो ह्यशक्यं पितृकार्यमेतत् ॥६५॥ पितुश्च पुत्रस्य च तामसः स्यात्पुत्रो विषान्नं प्रददौ द्विजेभ्यः । तवजितं तैरनृतार्थवद्भिरतश्चः मिथ्या पितृकार्यमत्र ॥६६॥ यादंशि दानानि पुरा द्विजेभ्यो दत्तानि नानारसवर्णबन्ति । फलन्ति तादंशि नृणामयत्नाउजन्मन्यमुत्रेति जनप्रवादः ॥ ६७ ॥ ॥ पंचविंशः सर्गः IRITURNSUPERTRE रामसारमाTERSTALLECTOR स्वर्गीय माता पिताकी सेवा सुश्रुषा करनेके लिए लोग उनका वार्षिक श्राद्ध करते हैं जिसमें पूजाका पिण्ड काक पक्षी खाते हैं तथा मिष्टान्न ब्राह्मण खाते हैं । इन प्राणियों के द्वारा खाया गया भोजन हो यदि परलोकवासी माता पिताकी भूख-प्यास ४ को शान्त कर देता है, तो इसका यहो निष्कर्ष निकलेगा कि तर्पण कर्ताओंके पितरों द्वारा कमाये गये शुभ-अशुभ पूर्वोपाजित सब ही कर्म नष्ट हो जाते हैं और उन्हें परान्नभोजी होना पड़ता है ।। ६४ ॥ पितृतर्पण कोई कोई ऐसा विचित्र पुरुष होता है कि वह अपने पूर्व जन्मको स्मरण रखता है और मोहसे आकृष्ट होकर अपनी ही लड़कीके उदरसे पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करता है। दूसरी तरफ उसका तर्पण भी चलता हो रहता है और वह पिण्डदानको खाता भी रहता है। इस प्रत्यक्ष दृष्ट घटनाका तो यही परिणाम निकलता है कि यहाँसे पितरोंका तर्पण कठिन ही नहीं, असंभव है ।। ६५ ॥ यह भी सम्भव है कि कोई पुत्र तामसिक हो अथवा पिता ही तामसी प्रकृतिका व्यक्ति रहा हो। ऐसी अवस्थामें वह ॥ तर्पणकर्ता कुभावनासे प्रेरित होकर विष मिला भोजन हो ब्राह्मणोंको दे देता है, किन्तु असत्य मान्यताओंका प्रचार करनेवाले तथा पितरों तथा पुत्रोंके माध्यम उन ब्राह्मणोंके द्वारा अपने प्राणोंके भयके कारण वह विषैला भोजन छुआ भी नहीं जाता है। इससे स्पष्ट है कि तर्पणका भोजन ब्राह्मणोंके हो पेटमें रह जाता है तथा पितरों की तृप्ति की बात सर्वथा कपोलकल्पित मनुष्य अपने पूर्व जन्ममें मनुष्योंके अग्रगण्य ब्राह्मणोंको जिन विविध रसोंसे आप्लावित, जिस-जिस रंग तथा आकारके [५०३] जो-जो दान देते हैं, उन्हें अपने इस ( अगले ) जन्ममें बिना किसी विशेष प्रयत्नके हो जो फल मिलते हैं उनका आकार, रूप, रस ॥ १.[स्वस्मात् ] | २.[जातश्च ]| ३.[विनाशि] | For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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