SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् So प्रसूतिश्च सतो यदि स्याद्गोशृङ्गतः किं न भवेच्च पुष्पम् । सतः प्रसूतिस्तु सतो यदि स्यादग्नेर्जलं वानलकोऽम्बुतो वा ॥ ७२ ॥ द्रव्ये सति क्षेत्रयुते च काले भावे च भावान्तरसंनिबद्धाः । भवन्ति भावा भुवनत्रयस्य सहेतुकाः केचन निर्निमित्ताः ॥ ७३ ॥ नाप्तो हि रुद्रस्त्रिपुरप्रणाशादुमापतित्वाद्रतिसंभवाच्च । अनङ्गभङ्गादसुरोपघाताज्जटाक्षिसूत्रवृषवाहनाच्च ॥ ७४ ॥ अग्निर्मुखं वेदसुरेश्वराणां योऽपीश्वरस्यापि मुखं ध्रुवं सः । आत्मानमात्मैव च वर्षयेद्यः सोऽन्यान्कथं मुञ्चति वञ्चितात्मा ॥ ७५ ॥ उत्पन्न होगी ? सत् पदार्थ, यदि किसी असत् पदार्थसे उत्पन्न हो सकता है, तो इस अवस्थामें कोई कारण नहीं कि सियारके सींगों वटके बीज उत्पन्न न हों ।। ७१ ।। सद्भावमय किसी पदार्थसे यदि असत् पदार्थ उत्पन्न सकता है, तब तो स्पष्ट आकार, रूप, आदि युक्त गायके सींगपर आकाश कुसुम खिल हो जाना चाहिये। तथा यदि किसी सद्भूत पदार्थ से किसी भी सत्स्वरूप पदार्थकी उत्पत्ति शक्य मानी जायेगी तो अग्नि से जलकी उत्पत्ति होने लगेगो अथवा शीतलस्वभाव जलसे उष्ण प्रकृति आग ही भभक उठेगी ।। ७२ ।। Jain Education International कारणता विचार संसार के समस्त पदार्थों की सृष्टिका साधारण नियम यही है कि उपादानकारण भूत द्रव्य जब अपने उपयुक्त क्षेत्रपर पहुँच जाता है, समय और भाव उसको उत्पत्तिके अनुकूल हो जाते हैं तथा अन्य साधन सामग्री एकत्रित हो जाती है तब ही तीनों लोकों में पदार्थों का उत्पाद व्यय प्रारम्भ हो जाता है, कोई भी वस्तु अकारण ही उत्पन्न नहीं होती है ॥ ७३ ॥ निस्सन्देह महादेवजी ने त्रिपुर राक्षपका वध किया था, वे गिरिराज दुलारी उमा ऐसी रूप तथा शक्तिवती स्त्रो के पति थे, रतिके कारण ही उनका आविर्भाव हुआ था, विश्वविजयी कामदेवको उन्होंने भरन कर दिया था, अनेक आततायी असुरोंका संहार किया था, केश संस्कार छोड़कर लम्बी-लम्बी जटा रख ली थीं, हालाहलपूर्ण सांपोंको माला बनायी थी तथा नन्दी ऐसे जंगली बैल पर सवारी करते थे, किन्तु इन कारणोंसे ही वे सत्य आप्त नहीं हो सकते हैं ।। ७४ ॥ पुराणों में जो यह लिखा है कि अग्नि ही सुर-असुर तथा ईश्वरका मुख ( हवन सामग्री ग्रहण करनेका द्वार ) है । इसका तात्पर्य यही हुआ कि वह अग्नि ईश्वरका भी मुख अवश्य होगी। तब वह अग्निरूपी मुख यज्ञके देवताओंतक हवन सामग्री भेजकर अपने आप ही अपनेको ठगता (भूखा रखता ) होगा । निष्कर्ष यही निकला कि जो अपनेको ही ठगता है वह दूसरोंको १. क वानलतोऽम्बुतो वा । ६४ For Private Personal Use Only पंचविंश: सर्गः [५०५] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy