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________________ वराज पंचविंश सर्गः चरितम् ब्रह्मापि नाप्तो हरिसारथिः' स्यान्निशम्भशुम्भासुरमर्दनाच्च । तिलोत्तमानप्रतिदर्शनेन चक्र यतो वक्त्रचतुष्टयत्वम् ॥ ७६ ॥ नाप्तो हि विष्णुर्बलिबन्धनेन तुरङ्गमास्यप्रविदारणाच्च । अनोविनाशाद्गजदन्तकर्षाच्चाणूरकंसाहिसुराभिघातात् ॥७७॥ यो गर्दभाय प्रतिनर्दनाय नमश्चकारार्थितया स विष्णुः । अरातिभीतः सुचुकुन्दनान्तः पर्यदेशातिथितां प्रयातः ॥ ७८ ॥ वज्रायपो गौतमभार्ययासौ विभिन्नवृत्तः किल तेन शप्तः। उमासुतः सोऽपि कुमारनामा भग्नवतोऽभूद्धनगोचरिण्या ॥ ७९॥ वंचनासे कैसे बचायेगा ।। ७५ ।। ईश्वरत्व विचार विष्णु ( हरि ) के समान शील, व्यसन आदिका आधार ब्रह्मा भी शुम्भ तथा निशुम्भको आपसमें लड़ाकर परास्त करके अथवा अन्य राक्षसोंका वध करनेके कारण ही आप्त पदको नहीं पा सकता है। कौन नहीं जानता है कि जिस समय वह समाधिमें लीन था उसी समय तिलोत्तमा नामकी अप्सराने आकर उनपर अपने रूपकी पाश फेंकी थी, जिससे विह्वल होकर उन्होंने उसे देखनेके लिए अपने चार मुख बनाये थे ॥ ७६ ॥ यादव वंशमें उत्पन्न श्रीकृष्ण रूपधारी विष्णुने आततायी राजा बलिको बन्धनमें डाला था घोड़ेका मुख बनाकर उपस्थित हुए दैत्य (हयग्रीव ) का मुख हो चीर कर दो कर दिया था। अनु ( ययातिका पुत्र ) की जीवन लोलाको समाप्त कर दिया था, कसके द्वारा छोड़े गये मदोन्मत्त हाथीका दाँत पकड़कर उखाड़ लिया था. चाणूरमल योद्धा तथा प्रजापोड़क कंसका बध किया था तथा यमुनामें पड़े कालिया नागको भी समुचित शिक्षा (वशीकरण) दी थी। किन्तु यह सब होते हुए भी वे आप्तके वीतराग स्वरूप तक न पहुँच सके थे ।। ७७ ॥ स्वार्थभावनासे प्रेरित होकर जिस विष्णुने गदहे ऐसे साधारण पशुके सामने प्रणत होकर नमस्कार केवल इसलिए किया था कि वह शत्रुके नादका उत्तर देने के लिए एक बार और रेंक दे। मुचुकुन्द नामके प्रबल शत्रुसे तो वे इतने अधिक डर गये थे कि उससे बचनेके लिए वे अपने पलंगके एक कोनेमें ही सिमट छिप गये थे, तब वे कैसे आप्त हो सकते हैं ।। ७८ ।। पुराणोंके अनुसार आदर्श पालक तथा वज्ररूपी महान शस्त्रके धारक इन्द्र महाराजाने भी कामके आवेशमें आकर अपने सदाचारको छोड़ दिया था और गौतमकी पत्नोसे अनाचार किया था। फलस्वरूप गौतमजोका अभिशाप भी भोगना पड़ा था। पार्वतीके प्रतापो पुत्र कुमार कार्तिकेयका आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत भी धनगोचरोणो नामक सुन्दरीके कटाक्षोंसे टूट गया था ॥७९।। ३१. क हरिः। २. क निःशम्भ। ३. [ मुचुकुन्द° ] । रामराज्यरचन्मय (५०६] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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