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________________ बराङ्ग चरितम् th त्रिशूलवज्रायुधचक्र हस्ता धनुर्गदाशक्त्य सिपाणयश्च । सतोमरा देववरा यदि स्युश्चोरा: " सुखल्वत्र हि कीदृशाः स्युः ॥ ८० ॥ स्त्रीभूषण रागिण एव देवाः क्रोधोऽस्ति तेषां स हि सापशुध्यै । सुराणामपि परिग्रहैरायुधसंग्रहैश्च भयं लोक सिद्धम् ॥ ८१ ॥ नैरात्म्य शून्यक्षणिक प्रवादाब्दबुद्धस्य रत्नत्रयमेव नास्ति । रत्नत्रयाभावतया च भूयः सर्वं तु न स्यात्कुत आप्तभावः ॥ ८२ ॥ मषैव यत्नात्करुणाभिमानो न तस्य दृष्टा खलु सस्वसंज्ञा । तया विना का करुणोपपत्तिः कृपाकथा बालकवञ्चनैषा ॥ ८३ ॥ यदि जगत् के पूज्य न्यायाधीश तथा शुद्ध स्वाभावयुक्त देवता ही हाथों में त्रिशूल, वज्र, चक्र, आदि घातक शस्त्र लेकर घूमेंगे, विशाल धनुष, भारी गदा, शक्ति, खड्ग, आदि शस्त्रोंको छोड़ नहीं सकते हैं तथा तोमर परमप्रिय होगा, तो फिर यह सोचिये कि चोर, डकैत, आदि पापकर्मरत पुरुष कैसे एवं क्या होंगे और क्या लेकर घूमेंगे || ८० ॥ यदि देवताओंको स्त्रियों, भूषणों आदिकी उत्कट चाह होती है, उन्हें भीषण क्रोध आता है तथा उसका अन्त अक्सर अभिशापके रूपमें होता है। वाहन विमान आदि दुनिया भरक परिग्रह रखते हैं, भाँति-भाँति के शस्त्र जुटाते हैं, इत्यादि प्रवृत्तियाँ तो यही सिद्ध करती हैं कि हम संसारी लोगों के समान देवताओंको भी भय लगता है ॥ ८१ ॥ Jain Education International सुगत मीमांसा बौद्धधर्मके प्रवर्तक महात्मा बुद्ध न तो आत्माका अस्तित्व स्वीकार करते थे, सचराचर विश्वको वास्तविक न मानकर उसे शून्य मानना ही उन्हें अभीष्ट था और किसी भी पदार्थको चिरस्थायी न कहकर क्षणिक ही कहते थे, फलतः रत्नत्रय भी उनके दर्शनसे सिद्ध नहीं हो सकता है। जब रत्नत्रयका ही अभाव हो गया तो फिर किस आधारपर संसार के समस्त भाव सिद्ध हो सकेंगे, सब वस्तुएँ अभाव स्वरूप हो जायेंगी और उनकी आप्तताकी भी वही दुर्दशा होगी ॥ ८२ ॥ महात्मा बुद्ध अपनी परम करुणाके लिए विख्यात हैं, किन्तु उनका यह करुण भाव झूठ ही है, क्योंकि उनके उपदेशके अनुसार उनके यहाँ न तो आत्माका ही अस्तित्व है और न उसमें उठनेवाले भावोंका । आत्मा तथा चेतनाके बिना समझमें नहीं आता कि करुणा कहाँ उत्पन्न होगी ? फलतः करुणा के विषय में उन्होंने जो कुछ भी कहा है, वह सब भोले लोगों की शुद्ध वंचना ही प्रतीत होतो है ॥ ८३ ॥ १. [ चोरास्तु खल्वत्र ] | २. [ शापशुद्धचं ] । ३. [ यस्मात् ] । For Private & Personal Use Only पंचविशः सर्गः [५०७] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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