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________________ बराङ्ग चरितम् अष्टाविंशः सर्गः यथैव मां स्थापितवान्नपत्वे प्रजाहितायात्र गुणेरुदारैः। तथानपुत्रं मम तं सुगानं राज्यश्रिया योजय साधु साधुम् ॥ ६१ ॥ मास्मत्स्मर' त्वं सुतरां कुमारं राज्यप्रकृत्या सह वर्धय त्वम् । अहं पुनः कामविरिक्तभावस्तपश्चरिष्यामि विमञ्च तात ॥ २ ॥ निशम्य वाच वसुधाधिपस्य संसारनिर्वेदपरायणस्य । स्नेहेन तं सागरवृद्धिरित्थं प्रोवाच धर्माश्रयणीयमर्थम् ॥ ६३ ॥ स्वामिन्किमेवं त्वविचार्य कार्य विचिन्तितं केवलमर्थदरम् । अप्रार्थनीयं मनसापि तादक न संमतं स्यात्तदयुक्तिमत्त्वात् ॥ ६४ ॥ HDHIPIPARDARPAARPAANIPHPSETTERPRETARPAN उत्तराधिकार-प्रस्ताव हे साधु ? आनर्तपुर तथा इसके पहिले उत्तमपुरमें प्रजाके शुभ तथा सम्पत्तिके लिए जैसे आपने अपनी उदारता तथा दया, दाक्षिण्य , आदि गुणोंसे प्रेरणा पाकर मुझे राजपदपर अभिषिक्त किया था, वैसे ही अब आप मेरे ज्येष्ठपुत्र कुमार सुगात्रको । आनर्तपुरको राजलक्ष्मीका स्वामी बनानेका कष्ट करिये क्योंकि कुमार सुगात्र राज्यपदके लिए सुयोग्य हैं ।। ६१ ।। आपसे यह भी आग्रह है कि मेरे चले जानेपर आप स्वयं मुझे याद न करेंगे। तथा स्वाभाविक चावसे विस्तृत साम्राज्य तथा प्रजाके साथ-साथ कुमार सुगात्रका भो अभ्युदय करेंगे। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे लोकके विषय-भोगोंसे विरक्ति हो गयी है । अब तो आप लोगोंका आशीर्वाद लेकर मैं तप करूंगा। हे पिताजी ! अब मुझे छुट्टी दीजिये ।। ६२ ।। सम्राट वरांगकी विरक्ति गम्भीर थी वे एक क्षणके लिए भी उधरसे चित्तको न हटा सकते थे, सेठ सागरवृद्धिका स्नेह भी उतना ही गम्भीर और तीव्र था । फलतः सम्राटके बचनोंको सुन चुकने पर उन्होंने निम्न वाक्यों द्वारा अपना अभिमत, जो कि सदा सुनने और समझने योग्य धर्मशास्त्रका सार था-को प्रकट किया था ।। ६३ ॥ "परिजन हैं रखवारे" हे सम्राट ? आप यह क्या करते हैं ? मेरा मत है कि आपने इसपर सब दृष्टियोंसे विचार नहीं किया है, केवल उस । दूर विषय ( मोक्ष ) पर ही आपने दृष्टि लगा रखी है जिसे किसीने साक्षात् देखा भी नहीं है। किन्तु इस प्रकारके लक्ष्यों अथवा आदर्शोको तो मनसे भी नहीं सोचना चाहिये। मैं आपके इस निर्णयसे कैसे सहमत हो सकता हूँ क्योंकि इसका किसी भी तकसे समर्थन नहीं होता है ।। ६४ ॥ १. [ मास्मान् ] चमचUAGARLSARILARGESARIA ५७०] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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