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________________ वराङ्ग चरितम् अवेशकाले प्रतिसंनिबद्ध बलाबलक्षेम विचारहीनम् । यत्स्वल्पमप्यत्र हि कार्यजातं प्रारब्धमज्ञेनं हि सिद्धिमेति ॥ ६५ ॥ इदं हि राज्यं नृपतिविशालं जनोऽप्रगल्भस्तरुणः सुतोऽपि । स्नेहश्च पित्रोर्जनतानुरागो विचन्तनीयः खलु सर्वमंत्र ॥ ६६ ॥ अरातिभिर्दुष्टतमैरनिष्टः सामन्तराजैरटवीश्वरैश्च । पुरा त्वया साधु विराधितैस्तैः सद्यो विनश्यत्यय राज्यमेतत् ॥ ६७ ॥ प्रमाणभूतस्त्वमिह प्रजानां नोतिप्रगल्भो विदितत्रिवर्गः । अतो भवन्तं शिरसाभियाचे मा साहसं कर्म कृथा नरेन्द्र ॥ ६८ ॥ अनुभवहीन पुरुषोंके द्वारा यदि कोई बहुत ही छोटा कार्य अनुचित देश तथा प्रतिकूल समय में प्रारम्भ कर दिया जाता है, तो वह कार्य बहुत थोड़े परिश्रम तथा सामग्रीसे सिद्ध होने योग्य होनेपर भी केवल इसीलिए पूर्ण नहीं होता है कि उस कार्य कर्ताओंने अपनी शक्तिका ठीक लेखा-जोखा न किया था, विरोधी परिस्थितियों तथा शक्तियोंसे अनभिज्ञ रहे थे, तथा वह कार्य किस प्रकार सहज ही हो सकता था इस दिशामें उनका विचार गया ही नहीं था। फिर आनर्तपुरका यह राज्य तो अतिविशाल तथा भगीरथ प्रयत्न साध्य है ।। ६५ ।। राजसमाज महाअध कारन आपके उत्तराधिकारी कुमार सुगात्र अभी किशोर ही है, आपके समान अनुभव, साहस आदिसे होन हैं। और विचारे अभी बालक ही हैं। इसके अतिरिक्त आपको माता-पिताका स्नेह तथा, जनताकी प्रगाढ़ राज-भक्ति भी ऐसी वस्तुएं हैं जिनकी एकदम बिना सोचे विचारे उपेक्षा नहीं की जा सकती है। यही सब बातें हैं जिनपर आपको शांत तथा निष्पक्ष होकर विचार करना चाहिये ॥ ६६ ॥ जो शत्रु आपके अभ्युदयमें बाधक थे, आचरण और शासन करनेमें अत्यन्त दुष्ट थे उन्हें आपने कठोर दण्ड दिया था। कितने ही महत्त्वाकांक्षी सामन्त राजाओंको आपने वशमें किया था, प्रजाकी शान्ति तथा समृद्धि के विरोधी अरण्य- चरोंको आपने जंगलों से मार भगाया था, तो भी ये सब आपके असह्य प्रतापके कारण शान्त है । किन्तु आपके मुख मोड़ते ही इन लोगों के अत्याचारोंसे यह साम्राज्य क्षणभरमें ही छिन्न-भिन्न हो जायगा ॥ ६७ ॥ प्रजाकी दृष्टिमें आपकी प्रत्येक चेष्टा प्रामाणिक है फलतः उसे आप पर अडिग विश्वास हैं। इसके भी कारण हैं, आप राजनीतिमें पारंगत हैं तथा धर्मं, अर्थ तथा काम इन तीनों पुरुषार्थोंके समन्वय युक्त रहस्य तथा आचरणके आदर्श हैं । अतएव १. [ नृपते विशालं ] । २. [ विचिन्तनीय ] Jain Education International ३. क वृथा । For Private & Personal Use Only अष्टाविंशः सर्गः [५७१] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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