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________________ वराङ्ग चरितम् Tiwari निशम्य तत्सागरवृद्धिनोक्तं वचः सदथं परिपाकतिक्तम् । महीपतिर्मन्दरतुल्यवीर्यः पुनर्बभाषेऽर्थमचिन्त्यमन्यैः ॥ ६९ ॥ नृणां च संपज्जलबुबुदाभा तथौवनं द्वित्रिचतुर्दिनानि । आयुः पुनश्छिद्रघटाम्बुतुल्यं शरीरमत्यन्तमपापिर्धाम' ॥७०॥ धनं शरन्मेघचलस्वभावं बलं क्षणेनाभ्युपयाति नाशम् । केशास्त्वशफ्ला जरसा भवन्ति मन्दत्वमायान्ति तथेन्द्रियाणि ॥ ७१॥ प्रीतिः पराभावमिति सद्यः सुखं च विद्युतपुषा समानम् । एकरूपैरुपयाति मत्युनं तस्य लोके विदितः क्षणोऽस्ति ॥७२॥ अष्टाविंशः सर्ग: -ETHAPATRAapne-THORASTRAMATIES मैं मस्तक झुकाकर आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि हे सम्राट! आप इस प्रकारका अतिसाहस न करें, क्योंकि मुझे उसमें कोई लाभ नहीं दिखाता है ।। ६८ ॥ वैराग्य-हेतु सेठ सागरवृद्धिका यह कथन संसारकी वास्विकताओंसे परिपूर्ण था तथा लौकिक दृष्टिसे अक्षरशः सत्य था किन्नु इसका परिणाम तो बुरा ही हो सकता था। सम्राट बरांगराज भी सुमेरु पर्वतके समान अपने निर्णयपर स्थिर थे, उन्हें अपनी शक्तिमें अटूट विश्वास था, फलतः धर्म-पिताके वचनोंको सुनकर उन्होंने कुछ ऐसे रहस्यमय भूतार्थीको उपस्थित किया था जिन्हें दूसरे सोच भी न सकते थे ।। ६९ ।। चंचला मनुष्योंकी लौकिक सम्पत्ति, कौन नहीं जानता है कि पानीके बुद्बुदके समान चंचला है। संसारकी प्रत्येक वस्तुको सुनहला करने में पटु यौवन भी दो, चार (बहत थोडे समयतक) दिन ही टिकता है। मनुष्य जीवन (आयु ) का तो कहना ही । क्या है वह तो सेंकड़ों छिद्रयुक्त घडेमें भरे गये पानीके समान है। शरीर तो हम देखते ही हैं कि बड़े वेगसे प्रतिक्षण नष्ट ही हो रहा है ॥ ७० ॥ जरा धनकी वही अवस्था है जो शरद ऋतमें उड़ते हए मेघोंकी है। सांसारिक कार्योका प्रधान निमित्त बल तो एक क्षणभर ही में न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। वृद्धावस्थाकी दृष्टि पड़ते ही मनुष्यके काले धुंघराले केश क्षणभरमें ही श्वेत हो जाते हैं। समस्त इन्द्रियाँ भी अपने आप ही निःशक्ति हो जाती हैं। मनुष्य जोवनके सुख शान्तिकी आधार-शिला प्रीति भी । देखते-देखते ही बदल जाती है ॥ ७१ ॥ [५७२] मृत्यु सुखोंकी क्षणभंगुरता तो आकाशमें कोंधनेवाली बिजलीको भी मात करती है। इस लोकमें मृत्यु अलग-अलग अनेक । १. [ अपायम ]। २. [ केशास्तु शुक्ला]। ३. [ विहितः ] । For Private & Personal Use Only Jan Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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