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________________ बराङ्ग । अष्टाविंशः सर्गः चरितम् इत्येवमादीन्नपतिविचिन्त्य निर्वेगसंवेग युतासदर्थम् । आहूय तं सागरवृद्धिमाप्तं स्वचित्तसंकल्पितमर्थमूचे ॥ ५७ ॥ पिता ममासीन्नपतिः क्रियातस्त्वं धर्मतो मे पितृतामुपेतः । वने भ्रमन्तं कृपया कृतार्थ प्राय॒युजो मामिह बन्धुवर्गः ।। ५८ ॥ महायतां युध्यगमस्तदा मे सदाभिभूतं सुखदुःखमात्रम् । स्वतन्त्रमुत्सृज्य च मां गुणज्ञः प्रातिष्ठिपच्छीमति राज्यभोगे ॥ ५९॥ ततो गुरुस्त्वं पितृमातृकल्प आपृच्छनीयश्च समर्चनीयः । निःशङ्या तेन वदामि कार्य तद्रोचतां ते यदि युक्तिमत्स्यात् ॥ ६०॥ ere e सम्राटके हृदयमें वैराग्यने घर कर लिया था अतएव उसने उक्त दृष्टियासे समस्त पदार्थोंके वास्तविक स्वरूपपर गम्भीर मनन किया था। इसके समाप्त होते ही उसने अपने परम आदरणीय तथा विश्वस्त सेठ सागरवृद्धिको बुलाकर उनसे अपने मनके पूरेके पूरे दुःखका कह डाला था ॥ ५७ ॥ हे मान्यवर ? मेरे पूज्य पिता महाराज धर्मसेन अपने कर्मसे ही मेरे पिता थे किन्तु आपने अपने स्वार्थत्याग तथा स्नेहके कारण मेरे धर्मपिताके स्थानको प्राप्त किया है। मैं जब जंगल-जंगल मारा फिरता था उस समय आपने ही कृपा करके मुझे शरण दी थी और समस्त बन्धु-बान्धवोंसे मिला दिया था ।। ५८ ।। विरक्ति उदय जब मैं युद्धक्षेत्रमें आहत होकर मरणासन्न हो गया था तब आपने ही सहायता की थी। आपने मेरे सुख-दुःखको उसी प्रकार अनुभव किया है जिस प्रकार लोग निजीको करते हैं। आपने ही राज्यप्राप्तिका अवसर आते ही मुझे उचित कार्य करनेके लिए स्वतन्त्र कर दिया था और विशाल विभव, लक्ष्मीयुक्त राज्यसिंहासनपर बैठा दिया था ॥ ५९॥ इन सब कारणोंसे आप मेरे माता-पिताके समान ही नहीं हैं; अपितु हितोपदेशो गुरु भी हैं। आप मेरे परम पूज्य हैं तथा मेरा कर्तव्य होता है कि कोई भी कार्य करनेके पहिले आपकी सम्मति अवश्य लं। यही कारण है कि मैं बिना किसी संकोचके ही आपके सामने अपने कर्त्तव्यको कहता हूँ। यदि आप उसे यक्तिसिद्ध समझें तो मेरो यही प्रार्थना है कि उसे पसन्द करके मुझे करनेको अनुमति अवश्य देवें ।। ६० ।। १. म निर्वेद। २. [ °संवेगयुतः । ३. [ सहायतां ] । Jain Education International or sweateSTHeresteeves+AHP-reazzeas ८९ . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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