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बराज चरितम्
। अष्टाविंशः
सर्गः
स्वं जीवितं न प्रविगण्य चोरः कस्मै समं वाञ्छति तं प्रयासम् । कस्येह चित्तं विमति न धत्ते विद्यद्वपश्चञ्चलजीवितात्मा ॥ ५३॥ तिर्यगमनुष्यासुरनारकाणां योनिष्बनेकास्वशुभावहासू।। अनन्तकालं बहजीवराशौ बंभ्रम्यते कर्मरथाधिरूढः ॥ ५४॥ संसारवासे वसतामसूनां शोकाय संक्लेशसहस्र भाजाम् । जरा च जातिमरणं च तेषामवश्यमेतत्क्षयमभ्युपैति ॥ ५५॥ अलाभलाभादिवियोगयोगं मानापमानप्रसवात्मकं यत् । सुखासुखं 'तद्भवने समस्ते जीवा लभन्ते स्वपुरात्मकेन ॥ ५६ ॥
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कैसा जातिका अभिमान ? किसका सौन्दर्य ? कौन नहीं जानता है कि एक क्षणभरमें ही ये सब देखते-देखते ही नष्ट हो । जाते हैं ।। ५२॥
समझमें नहीं आता कि चोर किसको संतुष्ट करनेके लिए अपने जीवन तककी चिन्ता नहीं करता है और असमय जागरण, असह्य-सहन, आदि भगीरथ प्रयत्नको करता है। किस धीर गम्भीर पुरुषका चित्त इस लोकके कोलाहलमें भ्रान्त नहीं हो जाता है, जब कि सब कार्योंका मूल आधार मनुष्य जीवन ही जलके बुद्बुदके समान अस्थिर और अनित्य है ॥ ५३॥
आह! यह जीव कोरूपी रथपर आरूढ होकर तिर्यञ्च, मनुष्य, देव तथा नारक योनियोंके अनेक भेद-प्रभेदोंमें चक्कर काटता है वहाँपर अनन्तकाल पर्यन्त विविध अशुभ तथा दुखोंकी अलग-अलग जीव योनियोंमें उत्पन्न होकर वह । भरता है ।। ५४ ॥
संसारकी विविध अवस्थाओंमें आयु काटनेवाले कर्मोंसे पददलित जीवोंके शोक दुखको बढ़ानेके लिए ही उनके जन्म, 4 जरा तथा मरण होते हैं। वे हजारों तरहके मानसिक तथा कायिक संघर्षों में पड़कर चकनाचूर हो जाते हैं। उन्हें जो भी प्राप्त होता है वह निश्चयसे नष्ट हो जाता है, कुछ भी स्थायी नहीं होता है ।। ५५ ।।
जगत्स्वभाव अपने पूर्वकृत कर्मोके फलस्वरूप जीवोंको इस विस्तुत भवनमें समस्त सूख-दुःख प्राप्त होते हैं जो इष्ट है उसकी प्राप्ति नहीं होती है। जो अप्रिय है वह साथ नहीं छोड़ता है। संयोगवश जिस इष्टका समागम हो जाता है उससे वियोग होता न है, यदि एक क्षणके लिए अप्रियसे छुटकारा मिलता है तो दुसरे क्षण उससे बड़ा अटल संयोग हो जाता है। मानका अभाव और ।। पद-पद पर अपमान मुख फाड़े खड़ा रहता है ॥ ५६ ॥ 2 . [ तद्भुवने ।
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