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________________ बराङ्ग अष्टाविंशः चरितम् किमत्र पुत्रविणोपहारैः संसारपाकातूरशोकमूलैः । दारस्तु किं वा हृदयप्रहारैश्चोरारिसर्पप्रतिमेरशुद्धैः॥४९॥ कि बान्धवैर्बन्धमयैः' सशल्यैरनर्थसंसिद्धिसमर्थलिङ्गः। आशावपाशैः किमनर्थमूलरर्थैर्दुरपार्थरितानुबन्धैः ॥५०॥ राज्यस्तु किं वा बहुचिन्तनीयैः संसारसंवर्धनहेतुभूतैः । भोगैः किमायासिभिरप्रशान्तैश्चरतुर्गतिक्लेशफलप्रदेस्तैः॥५१॥ कः कस्य बन्धुस्स्वथ कस्य मित्रं कस्याङ्गना कस्य बलं धनं वा। के कस्य पुत्राः कुलजातिदेशा रूपादयः के क्षणदष्टनष्टाः ॥ ५२ ॥ सर्गः PetikoaantrARISHTERSTUD पुत्रोंकी प्राप्त करनेसे भी आत्माका क्या लाभ हो सकता है, वे सब संसाररूपी अंकुरके महापरिणाम हैं, सम्पत्ति भी क्या सुख देगी जो कि स्वतः ही समस्त दुखोंका मूल कारण है। जिनके विचारको मनसे निकालना असंभव है ऐसी प्राणाधिका पत्नियां भी किस काम आयेंगी, इन्हें तो साक्षात् हृदय चोर, धातक-शत्रु तथा दारुण सर्प ही समझना चाहिये, क्योंकि वे अनेक अपवित्रताओंकी भण्डार हैं ।। ४२ ॥ सगे बन्धु-बान्धव भी कौन-सी रक्षा करेंगे? वे सब मनुष्यके जीवित बन्धन हैं, अनेक प्रकारकी द्विविधाओंको जन्म देते हैं तथा ऐसे समर्थ साधन हैं जो सरलतासे अनेक अनर्थों को उत्पन्न कर देते हैं । ५० ॥ संसार अपने पुरुषार्थसे कमायी गयी सम्पत्ति भी किस कामकी है। वह व्यर्थ ही आशाके कठोर पाशमें बांध देती है, सब अनर्थोकी ओर प्रेरित करती है फलतः संसारके काटोंमें घसीटनेवाले अशुभ बन्धका कारण होती है ।। ५१ ।। विपुल पुरुषार्थ और पराक्रमकी नींवपर खड़े किये गये विपुल राज्यसे भी परमार्थकी सिद्धि थोडे होगी ? उसके कारण भदिन-रात चिन्ता करनी पड़ती है ! तथा अनेक पाप करनेके कारण संसार भ्रमण भी बढ़ता ही जाता है। विषय-भोगोंकी भी क्या उपयोगिता है ? उनका स्वाद लेनेके लिए पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता है, तो भी कभी तृप्ति नहीं होती है। परिणाम होता है चारों गतियोंमें भ्रमण जो कि शोक-दुःखसे परिपूर्ण है ।। ५१ ॥ ऐकत्वभावना ___ इस अनित्य लोकमें कौन किसका बन्ध है। कौन किसका मित्र है ? कौन किसकी प्राणधिका प्रिया है ? कैसा शारीरिक, मित्र, सेना आदिका बल हो सकता है ? कहाँ किसका धन है ? कौन लोग किसके पुत्र हो सकते हैं ? कैसा कुलका विचार? १. म बन्धुमयः। २. म° प्रशान्त्य । E LEDIAमय [५६७] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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