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बराङ्ग चरितम्
मोहावृतो विस्मृतधर्मचेष्टो यद्याचरिष्याम्यहमत्र पापम् । विकासु कृतान्तनीतो दुःखान्यनेकान्यहितानि लियें ॥ ४५ ॥ नायूंषि तिष्ठन्ति चिरं नराणां न शाश्वतास्ते विभवाश्च तेषाम् । रूपादयस्तेऽपि गुणाः क्षणेन सविद्युदम्भोदसमानभङ्गाः ॥ ४६ ॥ समुत्थितोऽस्तं रविरभ्युपैति विनाशमभ्येति पुनः प्रदीपः । पयोदवृन्दं प्रलयं प्रयाति तथा मनुष्याः प्रलयं प्रयान्ति ॥ ४७ ॥ विज्ञाय चात्यन्तमनित्यभावमत्राणतामप्यशरण्यतां च ।
तपो जिनैरभ्युदितं यथावद्यद्यत्र कुर्यां न हि वञ्चितोऽस्मि ॥ ४८ ॥
यहाँपर मोहने मेरे विवेकपर पर्दा डाल रखा है। मैं धर्ममय आचार तथा विचारोंको भूल गया हूँ। इस अवस्थामें मैं जिस, जिस पापमय कुकर्मको यहाँ कर रहा हूँ, उस, उस कर्मका कुफल मुझे अनेक दुखों तथा अकल्याणोंके रूपमें उन अनेक जन्मों में भरना पड़ेगा जिसमें कृतान्त मुझे मृत्युके बाद घसीटता फिरेगा ।। ४५ ।।
अनित्य भावना
सांसारिक विषय भोगों में लीन मनुष्यों की आयु चिरकालतक नहीं ठहरती है। वे विभव तथा सम्पत्तियां भी सदा नहीं रहती हैं जिनपर फूले नहीं समाते हैं। सौन्दर्य, स्वास्थ्य आदिका उन्माद भी साधारण नहीं होता है किन्तु ये सब गुण भी तो एक क्षण में उसी प्रकार अदृश्य हो जाते हैं जिस प्रकार समस्त आकाशको आलोकित करनेवाली विद्युत् तथा विचित्र-विचित्र आकारधारी मेघ लुप्त हो जाते हैं ॥ ४६ ॥
संसारके समस्त शुभकर्मोंका प्रवर्तक रवि जब एक बार उदित होता है तो उसका अस्त भी अवश्यंभावी है । प्रज्वलित किये गये मनोहर प्रदीपका तुझना भी अटल है। तथा आकाश भित्तिपर भाँति-भाँतिकी चित्रकारी करनेवाले मेघ भी क्षणभरमें ही विलीन हो जाते हैं। मनुष्योंकी भी यही गति है, जो उत्पन्न हुए हैं एक दिन उनका मरण अवश्य होता है ॥ ४७ ॥
अशरणता
मनुष्य जीवनको अनित्यताको जानकर अत्यन्त अशरणताके रहस्य में पैठ कर तथा सब दृष्टियोंसे इसी निष्कर्षपर आकर कि जीवको दुःखोंसे कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती है, परमपूज्य, पूर्णज्ञानी जिनेन्द्र प्रभुने उचित विधि विधानयुक्त तपस्याका उपदेश दिया था यदि मैं उसे नहीं करता हूँ, तो मुझे सब दृष्टियोंसे ठगा गया समझना चाहिये ॥ ४८ ॥
५. ( लप्स्ये ) । ६. सर्व ।
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सप्तविंश: सर्गः
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